Sunday 24 February 2019

my poem in my words

No comments :

Monday 4 February 2019

वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है, vahi chitvan ki khoo khwari

No comments :

वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है
तिरी आँखों की बीमारी जो आगे थी सो अब भी है

वही नश-ओ-नुमा-ए-सब्ज़ा है गोर-ए-गरीबाँ पर
हवा-ए-चर्ख़ ज़ंगारी जो आगे थी सो अब भी है

तअल्लुक है वही ता हाल इन जुल्फों के सौदे से
सलासिल की गिरफ़्तारी जो आगे थी सो अब भी है

वही सर का पटकना है वही रोना है दिन भर का
वहीं रातों की बेदारी जो आगे थी सो अब भी है

रिवाज-ए-इश्क के आईं वही हैं किश्वर-ए-दिल में
रह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा जारी जो आगे थी सो अब भी है

वही जी का जलाना है पकाना है वही दिल का
वो उस की गर्म-बाजारी जो आगे थी सो अब भी है

नियाज़-ए-ख़ादिमाना है वही फ़ज़्ल-ए-इलाही से
बुतों की नाज़-बरदारी जो आगे थी सो अब भी है

फ़िराक़-ए-यार में जिस तरह से मरता था मरता हूँ
वो रूह ओ तन की बेज़ारी जो आगे थी सो अब भी है

जुनूँ की गर्म-जोशी है वही दीवानों से अपनी
वही दाग़ों की गुल-कारी जो आगे थी सो अब भी है

वही बाज़ार-ए-गर्मी है मोहब्बत की हुनूज़ ‘आतिश’
वो यूसुफ की ख़रीदारी जो आगे थी सो अब भी है


सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या, sun to sahi jahaa mei hai

No comments :

सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझ को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा गा़एबाना क्या

क्या क्या उलझता है तिरी ज़ुल्फों के तार से
बख़िया-तलब है सीना-ए-सद-चाक-शाना क्या

ज़ेर-ए-जमीं से आता है जो गुल सो ज़र-ब-कफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया ख़जाना क्या

उड़ता है शौक़-ए-राहत-ए-मंज़िल से अस्प-ए-उम्र
महमेज़ कहते हैंगे किसे ताज़ियाना क्या

ज़ीना सबा ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बुलंद यार का है आस्ताना क्या

चारों तरफ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवा गर
दिल साफ़ हो तिरा तो है आईना-ख़ाना क्या

सय्याद असीर-ए-दाम-ए-रग-ए-गुल है अंदलीब
दिखला रहा है छु के उसे दाम ओ दाना क्या

तब्ल-ओ-अलम ही पास है अपने न मुल्क ओ माल
हम से खिलाफ हो के करेगा ज़माना क्या

आती है किस तरह से मिरे क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या

होता है जर्द सुन के जो ना-मर्द मुद्दई
रूस्तम की दास्ताँ है हमारा फ़साना क्या

तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़े तो अड़ेगा निशाना क्या

सय्याद-ए-गुल अज़ार दिखाता है सैर-ए-ब़ाग
बुलबुल क़फ़स में याद करे आशियाना क्या

बे-ताब है कमाल हमारा दिल-ए-हज़ीं
मेहमाँ सरा-ए-जिस्म का होगा रवाना क्या

यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे
‘आतिश’ ग़जल ये तू ने कही आशिक़ाना क्या


शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था, shab ae vasl thi chandni ka samaa tha

No comments :

शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था

मुबाकर शब-ए-कद्र से भी वो शब थी
सहर तक मह ओ मुशतरी का क़िराँ था

वो शब थी कि थी रौशनी जिस में दिन की
ज़मीं पर से इक नूर तो आस्माँ था

निकाले थे दो चाँद उस ने मुक़ाबिल
वो शब सुब्ह-ए-जन्नत का जिस पर गुमाँ था

उरूसी की शब की हलावत थी हासिल
फ़रह-नाक थी रूह दिल शादमाँ था

मुशाहिद जमाल-ए-परी की थी आँखें
मकान-ए-विसाल इक तिलिस्मी मकाँ था

हुज़ूरी निगाहों को दीदार से थी
खुला था वो पर्दा कि जो दरमियाँ था

किया था उसे बोसा-बाज़ी ने पैदा
कमर की तरह से जो ग़ाएब दहाँ था

हक़ीक़त दिखाता था इश़्क-ए-मजाज़ी
निहाँ जिस को समझे हुए थे अयाँ था

बयाँ ख़्वाब की तरह जो कर रहा है
ये क़िस्सा है जब का कि ‘आतिश’ जवाँ था


Sunday 3 February 2019

ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए, na fahmi apni parda hai deedar ke liye

No comments :

ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए
वर्ना कोई ऩकाब नहीं यार के लिए

नूर-ए-तजल्ली है तिरे रूख़्सार के लिए
आँखें मिरी कलीम हैं दीदार के लिए

कौन अपना है ये सुब्हा-ओ-जुन्नार के लिए
दो फंदे हैं ये काफ़िर ओ दीं-दार के लिए

दो आँखें चेहरे पर नहीं तेरे फ़कीर के
दो ठेकरे हैं भीक के दीदार के लिए

सुर्मा लगाया कीजिएर आँखों में मेहरबाँ
इक्सीर ये सुफूफ है बीमार के लिए

हल्के में जुल्फ-ए-यार की मोती पिराइए
ददाँ ज़रूर है दहन-ए-मार के लिए

गुफ़्त-ओ-शुनीद में हों बसर दिन बहार के
गुल के लिए है गोश ज़बाँ ख़ार के लिए

आया जो देखने तिरे हुस्न ओ जमाल को
पकड़ा गया वो इश्क़ के बेगार के लिए

हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे
ज़ेवर है सादगी तिर रूख़्सार के लिए

गुल-हा-ए-जख़्म से हों शहादत-तलब निहाल
तौफ़ीक़-ए-ख़ैर हो तिरी तलवार के लिए

एहसाँ जो इब्तिदा से है ‘आतिश’ वही है आज
कुछ इंतिहा नहीं करम-ए-यार के लिए





लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले lakht ae jigar ko kyukar mizgaan ae tar

No comments :

लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले
ये शाख़ वो नहीं जो बार-ए-समर सँभाले

दीवाना हो के कोई फाड़ा करे गिरेबाँ
मुमकिन नहीं कि दामन वो बे-ख़बर सँभाले

तलवार खींच कर वो ख़ूँ-ख़्वार है ये कहता
मुँह पर जो खाते डरता हो वो सिपर सँभाले

तकिए में आदमी को लाज़िम कफ़न है रखना
बैठा रहे मुसाफिर रख़्त-ए-सफर सँभाले

यक दम न निभने देती उन की तुनक-मिज़ाजी
रखते न हम तबीअत अपनी अगर सँभाले

वो नख़्ल-ए-ख़ुश्क हूँ मैं इस गुलशन-ए-जहाँ में
फिरता है बाग़बाँ भी मुझ पर तबर सँभाले

हर गाम पर ख़ुशी से वारफ़्तगी सी होगी
लाना जवाब-ए-ख़त को ऐ नामा-बर सँभाले

या फिर कतर पर उस के सय्याद या छुरी फेर
बे-बाल-ओ-पर ने तेरे फिर बाल-ओ-पर सँभाले

दर्द-ए-फ़िराक ‘आतिश’ तड़पा रहा है हम को
इक हाथ दिल सँभाले है इक जिगर सँभाले


क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके kya kya na rang tere talab gaar

No comments :

क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके
मस्तों को जोश सूफ़ियों को हाल आ चुके

हस्ती को मिस्ल-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मिटा चुके
आशिक़ नक़ाब-ए-शाहिद-ए-मक़सूद उठा चुके

काबे से दैर दैर से काबे को जा चुके
क्या क्या न इस दो-राहे में हम फेर खा चुके

गुस्ताख़ हाथ तौके़-ए-कमर यार के हुए
हद्द-ए-अदब से पाँव को आगे बढ़ा चुके

कनआँ से शहर-ए-मिस्र में युसूफ को ले गए
बाज़ार में भी हुस्न को आख़िर दिखा चुके

पहुँचे तड़प तड़प के भी जल्लाद तक न हम
ताक़त से हाथ पाँव ज़ियादा हिला चुके

होती है तन में रूह पयाम-ए-अजल से शाद
दिन वादा-ए-विसाल के नज़दीक आ चुके

पैमाना मेरी उम्र का लबरेज़ हो कहीं
साक़ी मुझे भी अब तो प्याला पिला चुके

दीवाना जानते हैं तिरा होश्यार उन्हें
जामे को जिस्म के भी जो पुर्जे उड़ा चुके

बे-वजह हर दम आइना पेश-ए-नज़र नहीं
समझे हम आप आँखों में अपनी समा चुके

उस दिल-रूबा से बस्ल हुआ दे के जान को
यूसुफ को मोल ले चुके कीमत चुका चुके

उट्ठा नक़ाब चेहरा-ए-ज़ेबा-ए-यार से
दीवार दरमियाँ जो थी हम उस को ढा चुके

ज़ेर-ए-ज़मीं भी तड़पेंगे ऐ आसमान-ए-हुस्न
बे-ताब तेरे गोर में भी चैन पा चुके

आराइश-ए-जमाल बला का नुज़ूल है
अंधेर कर दिया जो वो मिस्सी लगा चुके

दो अबरू और दो लब-ए-जाँ-बख़्श यार के
ज़िंदों को क़त्ल कर चुके मुर्दे जिला चुके


मजबूर कर दिया है मोहब्बत ने यार की
बाहर हम इख़्तियार से हैं अपने जा चुके

सदमों ने इश्क़-ए-हुस्न के दम कर दिया फ़ना
‘आतिश’ सज़ा गुनाह-ए-मोहब्बत की पा चुके


आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था, aaina seena ae sahaab najra

No comments :

आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था
चेहरा-ए-शाहिद-ए-मक़सूद अयाँ है कि जो था

इश्क़-ए-गुल में वही बुलबुल का फ़ुगाँ है कि जो था
परतव-ए-मह से वही हाल-ए-कताँ है कि जो था

आलम-ए-हुस्न ख़ुदा-दाद-ए-बुताँ है कि जो था
नाज़ ओ अंदाज़ बला-ए-दिल-ओ-जाँ है कि जो था

राह में तेरी शब ओ रोज़ बसर करता हूँ
वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था

रोज़ करते हैं शब-ए-हिज्र को बेदारी में
अपनी आँखों में सुबुक ख़्वाब-ए-गिराँ है कि जो था

एक आलम में हो हर-चंद मसीहा मशहूर
नाम-ए-बीमार से तुम को ख़फ़काँ है कि जो था

दौलत-ए-इश्क़ का गंजीना वही सीना है
दाग़-ए-दिल ज़ख़्म-ए-जिगर मेहर ओ निशाँ है कि जो था

नाज़ ओ अंदाज ओ अदा से तुम्हें शर्म आने लगी
आरज़ी हुस्न का आलम वो कहाँ है कि जो था

असर-ए-मंजिल-ए-मकसूद नहीं दुनिया में
राह में क़ाफिला-ए-रेग-ए-रवाँ है कि जो था

पा-ए-ख़ुम मस्तों की हू हक़ का जो आलम है सो है
सर-ए-मिंबर वही वाइज़ का बयाँ है कि जो था

सोज़िश-ए-दिल से तसलसुल है वहीं आहों का
ऊद के जलने से मुजमिर में धुआँ है कि जो था

रात कट जाती है बातें वही सुनते सुनते
शम-ए-महफिल-ए-सनम चर्ज ज़बाँ है कि जो था

कौन से दिन नई क़ब्रें नहीं इस में बनतीं
ये ख़राबा वह इबरत का मकाँ है कि जो था

दीन ओ दुनिया का तलब-गार हुनूज ‘आतिश’ है
ये गदा साइल-ए-नकद-ए-दो-जहाँ है कि जो था