Sunday 31 March 2019

सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ, मेरी क़ीमत ये है surma ae muf najar hu

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सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ, मेरी क़ीमत ये है
कि रहे चश्म-ए-ख़रीदार पे एहसां मेरा

रुख़्सत-ए-नाला मुझे दे कि मुबादा ज़ालिम
तेरे चेहरे से हो ज़ाहिर ग़म-ए-पिनहां मेरा



ख़लवत-ए आबिला-ए-पा में है जौलां मेरा
ख़ूं है दिल-तंगी-ए वहशत से बयाबां मेरा

हसरत-ए नशा-ए वहशत न ब सअई-ए दिल है
अ़रज़-ए ख़मयाज़ा-ए मजनूं है गरेबां मेरा

फ़हम ज़न्जीरी-ए-बेरबती-ए दिल है या रब
किस ज़बां में है लक़ब ख़्वाब-ए-परेशां मेरा


ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना jikr us parvarish ka

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ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दां अपना

मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में, यारब
आज ही हुआ मंज़ूर उनको इम्तहां अपना

मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से उधर होता काश के मकां अपना

दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे
बारे आशना निकला उनका पासबां अपना

दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचका अपना

घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अ़बस बदला
नंग-ए-सिजदा से मेरे संग-ए-आस्तां अपना

ता करे न ग़म्माज़ी, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में हम ने हमज़बां अपना

हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना


रश्क कहता है के उस rashw kahta hai ke us

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रश्क कहता है के उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
अक़्ल कहती है के वो बे-मेहर किस का आश्ना


अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा arz ae niyaaz ae ishq ke kaabil

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अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुए
हूँ शमआ़-ए-कुश्ता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा

मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-खंजर-ए-कातिल नहीं रहा

बर-रू-ए-शश जिहत दर-ए-आईनाबाज़ है
यां इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ-क़ामिल नहीं रहा

वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा

गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गया कि वां
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा

बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा


आईना देख अपना सा मुंह लेके रह गये aaina dekh ke apna muh

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आईना देख अपना सा मुंह लेके रह गये
साहिब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था

क़ासिद को अपने हाथ से गरदन न मारिये
उस की ख़ता नहीं है यह मेरा क़सूर था


शब कि वह मजलिस-फ़रोज़-ए-खल्वत-ए-नामूस था shab ki vah majlis faroj

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शब कि वह मजलिस-फ़रोज़-ए-खल्वत-ए-नामूस था
रिश्ता-ए हर शमअ़ खार-ए-किस्वत-ए-फ़ानूस था

मशहद-ए-आशिक़ से कोसों तक जो उगती है हिना
किस कदर या रब हलाक-ए-हसरत-ए-पाबोस था

हासिल-ए-उल्फ़त ना देखा जुज
शिकस्त-ए-आरजू
दिल ब दिल पैवस्त गोया इक लब-ए-अफ़सोस था

क्या कहूं बीमारी-ए-ग़म कि फ़राग़त का बयां
जो कि खाया, ख़ून-ए-दिल बेमिन्नत-ए-कैमूस था


मुस्कराहटें फिर वोही muskrahate fir vohi

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शाम से धुँआ कोई,
आँखों मे उड़ने लगा कही,
जलते हुए कुछ खवाब है
सहमी हुई कुछ साँस है
कोई दे मुस्कराहटें फिर वोही



Ruchi Sehgal

तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था tu dost kisi ka bhi sitamgar na hua

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तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था
औरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था

छोड़ा मह-ए-नख़शब की तरह दस्त-ए-क़ज़ा ने
ख़ुर्शीद हनूज़ उस के बराबर न हुआ था

तौफ़ीक़ बअन्दाज़ा-ए-हिम्मत है अज़ल से
आँखों में है वो क़तरा कि गौहर न हुआ था

जब तक की न देखा था क़द-ए-यार का आ़लम
मैं मुअ़़तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था

मैं सादा-दिल, आज़ुर्दगी-ए-यार से ख़ुश हूँ
यानी सबक़-ए-शौक़ मुकर्रर न हुआ था

दरिया-ए-मआ़सी तुनुक-आबी से हुआ ख़ुश्क
मेरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था

जारी थी असद दाग़-ए-जिगर से मेरी तहसील
आतिशकदा जागीर-ए-समन्दर न हुआ था


लब-ए-ख़ुशक दर-तिशनगी-मुरदगां का lab ae khushak dar tishnagi

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लब-ए-ख़ुशक दर-तिशनगी-मुरदगां का
ज़ियारत-कदा हूं दिल-आज़ुरदगां का

हमह ना-उमीदी हमह बद-गुमानी
मैं दिल हूं फ़रेब-ए-वफ़ा-ख़ुरदगां का


हुई ताख़ीर तो कुछ बाइसे-ताख़ीर भी था hui taakhir to kuch baaise taakhir

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हुई ताख़ीर तो कुछ बाइसे-ताख़ीर भी था
आप आते थे, मगर कोई इनाँगीर भी था

तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था

तू मुझे भूल गया हो, तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़चीर भी था

क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हाँ कुछ इक रंज-ए-गिरांबारी-ए-ज़ंजीर भी था

बिजली इक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, कि मैं लब-तश्ना-ए-तक़रीर भी था

यूसुफ़ उस को कहूँ, और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक़-ए-तअ़ज़ीर  भी था

देखकर ग़ैर को हो क्यों न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले, तालिब-ए-तासीर भी था

पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्ता-सरों में वो जवाँ-मीर भी था

हम थे मरने को खड़े, पास न आया न सही
आखिर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था

रेख़ते[14] के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था


फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया phir mujhe deeda ae tar yaad

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फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रियाद आया

दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया

सादगी-हाए-तमन्ना, यानी
फिर वो नैरंगे-नज़र याद आया

उज़्रे-वा-मांदगी ऐ हसरते-दिल
नाला करता था जिगर याद आया

ज़िन्दगी यों भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया

क्या ही रिज़्वां से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्द में गर याद आया

आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आ के जिगर याद आया

फिर तेरे कूचे को जाता है ख़याल
दिल-ए-गुमगश्ता मगर याद आया

कोई वीरानी-सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया

मैंने मजनूं पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था कि सर याद आया


वो मेरी चीन-ए-जबीं से ग़मे-पिनहां समझा vo meri chin ae jabi

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वो मेरी चीन-ए-जबीं से ग़मे-पिनहां समझा
राज़-ए-मकतूब ब बे-रबती-ए-उनवां समझा

यक अलिफ़ बेश नहीं सैक़ल-ए-आईना हनूज़
चाक करता हूं मैं जब से कि गिरेबां समझा

शरह-ए-असबाब-ए-गिरफ़तारी-ए-ख़ातिर मत पूछ
इस क़दर तंग हुआ दिल कि मैं ज़िन्दां समझा

बद-गुमानी ने न चाहा उसे सरगरम-ए-ख़िराम
रुख़ पे हर क़तरा अ़रक़ दीदा-ए-हैरां समझा

अ़जज़ से अपने यह जाना कि वह बद-ख़ू होगा
नब्ज़-ए-ख़़स से तपिश-ए-शोला-ए-सोज़ां समझा

सफ़र-ए-इश्क़ में की ज़ोफ़ ने राहत-तलबी
हर क़दम साए को मैं अपने शबिस्तां समझा

था गुरेज़ां मिज़गां-हाए-यार से दिल ता-दम-ए-मर्ग
दफ़अ-ए-पैकान-ए-क़ज़ा उस क़दर आसां समझा

दिल दिया जान के क्यूं उस को वफ़ादार 'असद'
ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमां समझा


यक ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का yak jaraa ae jamee nahi bekar

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यक ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का
यां जादा भी फ़तीला है लाले के दाग़  का

बे-मै किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-आगही
खेंचा है अ़ज़ज़-ए-हौसला ने ख़त अयाग़ का

बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़नदा-हाए-गुल
कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का

ताज़ा नहीं है नशा-ए-फ़िकर-ए-सुख़न मुझे
तिरयाकी-ए-क़दीम हूं दूद-ए-चिराग़ का

सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का

बे-ख़ून-ए-दिल है चश्म में मौज-ए-निगह ग़ुबार
यह मै-कदा ख़राब है मै के सुराग़ का

बाग़-ए-शिगुफ़ता तेरा बिसात-ए-नशात-ए-दिल
अब्र-ए-बहार ख़ुम-कदा किस के दिमाग़ का


न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता na tha kuch to khuda tha

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न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!

हुआ जब ग़म से यूँ बेहिस, तो ग़म क्या सर के कटने का ?
न होता गर जुदा तन से, तो ज़ानू पर धरा होता

हुई मुद्दत के 'ग़ालिब' मर गया, पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता?


घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता ghar hamara jo na rote bhi to

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घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता

तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता, तो परेशां होता

बादे-यक उम्र-वराअ बार तो देता बारे
काश, रिज़्वां ही दर-ए-यार का दरबां होता


मैं और बज़्मे-मै, से यूं तश्नाकाम आऊं! Mai aur bazm ae

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मैं और बज़्मे-मै, से यूं तश्नाकाम आऊं!
गर मैंने की थी तौबा, साक़ी को क्या हुआ था?

है एक तीर, जिसमें दोनों छिदे पड़ें हैं
वो दिन गए, कि अपना दिल से जिगर जुदा था

दरमान्दगी में 'ग़ालिब', कुछ बन पड़े तो जानूं
जब रिश्ता बेगिरह था, नाख़ून गिरह-कुशा था


जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बांधा jab ba takreeb ae safar yaar ne

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जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बांधा
तपिश-ए-शौक़ ने हर ज़र्रे पे इक दिल बांधा

अहल-ए-बीनिश ने ब हैरत-कदे शोख़ी-ए-नाज़
जौहर-ए-आइना को तूती-ए-बिस्मिल बांधा

यास-ओ-उम्मीद ने यक अ़रबदा-मैदां मांगा
अ़जज़-ए-हिम्मत ने तिलिसम-ए-दिल-ए-साइल बांधा

न बंधे तिशनगी-ए-शौक़ के मज़मूं ग़ालिब
गरचे दिल खोल के दरिया को भी साहिल बांधा


Sunday 24 March 2019

क़तरा-ए-मै बसकि हैरत katra ae mai baski hairat

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क़तरा-ए-मै बसकि हैरत से नफ़स-परवर हुआ
ख़त्त-ए-जाम-ए-मै सरासर रिश्ता-ए-गौहर हुआ

एतिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
ग़ैर ने की आह, लेकिन वह ख़फ़ा मुझ पर हुआ


गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का gila hai shouk ko dil mei bhi

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गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का
गुहर में महव हुआ इज़्तराब दरिया का

ये जानता हूँ कि तू और पासुख़-ए-मकतूब
मगर सितमज़दा हूँ ज़ौक़े-ख़ामा-फ़र्सा का

हिना-ए-पा-ए-ख़िज़ां है बहार, अगर है यही
दवाम क़ुल्फ़ते-ख़ातिर है ऐश दुनिया का

ग़मे-फ़िराक़ में तकलीफ़-सैरे-गुल न दो
मुझे दिमाग़ नहीं ख़न्दा-हाए-बेजा का

हनूज़ महरमी-ए-हुस्न को तरसता हूँ
करे है हर बुने-मू काम चश्मे-बीना का

दिल उसको पहले ही नाज़ो-अदा से दे बैठे
हमें दिमाग़ कहां हु्स्न के तक़ाज़ा का

न कह कि गिरिया बमिक़दारे-हसरते-दिल है
मेरी निगाह में है जमओ़-ख़रज दरिया का

फ़लक को देखके करता हूँ उसको याद ‘असद’
जफ़ा में उसकी है अन्दाज़ कारफ़रमा का


दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ dard minnat kash ae davaa

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दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ

जमा करते हो क्यों रक़ीबों को?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहां क़िस्मत आज़माने जाएं?
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ

कितने शीरीं हैं तेरे लब! कि रक़ीब
गालियां खाके बे-मज़ा न हुआ

है ख़बर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ

क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मेरा भला न हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूं है, कि हक़  अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ

रहज़नी है कि दिल-सितानी है?
लेके दिल दिलसितां रवाना हुआ

कुछ तो पढ़िये कि लोग कहते हैं
"आज 'ग़ालिब' ग़ज़लसरा न हुआ"


गर न अन्दोहे-शबे-फ़ुरक़त gar na andohe shabe furkat

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गर न अन्दोहे-शबे-फ़ुरक़त बयां हो जाएगा
बे-तकल्लुफ़, दाग़-ए-मह मुहर-ए-दहां हो जाएगा

ज़हरा गर ऐसा ही शाम-ए-हिज़र में होता है आब
पर्तव-ए-माहताब सैल-ए-ख़ान-मां हो जाएगा

ले तो लूं सोते में, उस के पांव का बोसा, मगर
ऐसी बातों से वह काफ़िर बद-गुमां हो जाएगा

दिल को हम सरफ़-ए-वफ़ा समझे थे क्या मालूम था
यानी यह पहले ही नज़र-ए-इम्तिहां हो जाएगा

सब के दिल में है जगह तेरी, जो तू राज़ी हुआ
मुझ पे गोया इक ज़माना मेहर-बां हो जाएगा

गर निगाह-ए-गरम फ़रमाती रही तालीम-ए-ज़ब्त
शोला ख़स में जैसे, ख़ूं रग में निहां हो जाएगा

बाग़ में मुझ को न ले जा, वरना मेरे हाल पर
हर गुल-ए-तर एक चश्म-ए-ख़ूं-फ़िशां हो जाएगा

वाए, गर मेरा-तेरा इंसाफ़ महशर में न हो
अब तलक तो, यह तवक़्क़ो है कि वां हो जाएगा

फ़ायदा क्या! सोच, आख़िर तू भी दाना है 'असद '
दोस्ती नादां की है, जी का ज़ियां हो जाएगा


पए-नज़्रे-करम तोहफ़ा है paye najre karam tohfa hai

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पए-नज़्रे-करम तोहफ़ा है शर्मे-ना-रसाई का
ब-ख़ूं-ग़ल्तीदा-ए-सद-रंग दावा पारसाई का

न हो हुस्ने-तमाशा दोस्त रुस्वा बे-वफ़ाई का
बमुहरे-सद-नज़र साबित है दावा पारसाई का

ज़काते-हुस्न दे ऐ जल्वा-ए-बीनिश कि मेहर-आसा
चिराग़े-ख़ाना-ए-दरवेश हो कासा-गदाई का

न मारा जानकर बेजुर्म ग़ाफ़िल, तेरी गरदन पर
रहा मानिन्दे-ख़ूने-बे-गुनाह हक़ आशनाई का

तमन्ना-ए-ज़बां महवे-सिपासे-बे-ज़बानी है
मिटा जिससे तक़ाज़ा शिकवा-ए-बे-दस्तो-पाई का

वही इक बात है जो यां नफ़स, वां नकहते-गुल है
चमन का जल्वा बा`इस है मेरी रंगीं-नवाई का

दहाने-हर-बुते-पैग़ारा-जू ज़ंजीरे-रुसवाई
अ़दम तक बे-वफ़ा! चर्चा है तेरी बे-वफ़ाई का

न दे नाले[23] को इतना तूल 'ग़ालिब' मुख़्तसर[24] लिख दे
कि हसरते-संज[25] हूं अर्ज़े-सितम-हाए-जुदाई[26] का


दरख़ुरे-क़हरो-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ darkhure kahro gazab jab koi humsa

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दरख़ुरे-क़हरो-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
फिर ग़लत क्या है कि हम सा कोई पैदा न हुआ

बन्दगी में भी वह आज़ाद-ओ-ख़ुदबीं हैं कि हम
उलटे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ

सबको मक़बूल है दावा तेरी यकताई का
रूबरू कोई बुत-ए-आईना-सीमा न हुआ

कम नहीं, नाज़िश-ए-हमनामी-ए-चश्म-ए-ख़ूबां
तेरा बीमार, बुरा क्या है, गर अच्छा न हुआ

सीने का दाग़ है वो नाला कि लब तक न गया
ख़ाक का रिज़क़ है वो क़तरा जो दरिया न हुआ

नाम का मेरे है जो दुःख कि किसी को न मिला
काम में मेरे है जो फ़ितना कि बरपा न हुआ

हर बुन-ए-मू से दम-ए-ज़िक्र न टपके ख़ूं-नाब
हमज़ा का क़िस्सा हुआ, इ्श्क़ का चर्चा न हुआ

क़तरे में दिजला दिखाई न दे और जुज़व में कुल
खेल लड़कों का हुआ, दीदा-ए-बीना न हुआ

थी ख़बर गरम कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुरज़े
देखने हम भी गये थे, पे तमाशा न हुआ


darakhure-kharo-gjb jab koii ham saa n huaa
fir glat kyaa hai ki ham saa koii paidaa n huaa

bandagii men bhii vah aajaad-o-khudabiin hain ki ham
ulaTe fir aae dar-e-kaabaa agar vaa na huaa

sabako makbool hai daavaa terii yakataaii kaa
roobaroo koii but-e-aaiinaa-siimaa na huaa

kam nahiin, naajish-e-hamanaamii-e-chashm-e-khoobaan
teraa biimaar, buraa kyaa hai, gar achchhaa n huaa

siine kaa daag hai vo naalaa ki lab tak n gayaa
khaak kaa rijk hai vo ktaraa jo dariyaa n huaa

naam kaa mere hai jo duHkh ki kisii ko n milaa
kaam men mere hai jo fitanaa ki barapaa na huaa

har bun-e-moo se dam-e-jikr n Tapake khoon-naab
hamajaa kaa kissaa huaa, ishk kaa charchaa n huaa

ktare men dijalaa dikhaaii n de aur jujv men kul
khel laDkon kaa huaa, diidaa-e-biinaa n huaa

thii khbar garam ki 'gaalib' ke uDenge puraje
dekhane ham bhii gaye the, pe tamaashaa n huaa


पलके भी फड़फड़ाती palke bhi fadfadati hongi

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कभी खिडक़ी पे खड़ी बाल बनाती होगी
कभी सहेलियों मै बैठी मज़ाक उड़ाती होगी
रंगो में अनोखा रंग चुनकर
वो खुद का लिबास बनाती होगी
आईने में आँखों को देखकर वो काजल लगाती होगी
तो पलके भी फड़फड़ाती होंगी


वादे तो निभाने होंगे vaade to nbhane honge

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असूल कहे इसे या फिर कोई  अहमकाना ख्वाइश
के वो जो नाम भी भूल गया होगा मेरा
उसे मुझसे किये वादे तो निभाने होंगे


हम जायेंगे नही hum jayenge nahi

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अजीब पागलपन है मोहब्बत भी
जानती हु के वो आएंगे नहीं
और ठान लिया के उनके बिना हम जायेंगे नहीं


बात है असूल की baat hai asool ki

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दिल की नहीं ये बात
बात है असूल की
वो भी माने जिद मेरी
के जिनकी हर बात हमने कबूल की


सौदा हम तो करेंगे souda hum karenge

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मोहब्बत में सौदे होते नहीं
मगर सौदा हम तो करेंगे
बेवफा महबूब निकल तो
उसका हर्जाना हम क्यों भरेंगे
वो वादे भूल गया सभी
तो हम भी किसका लिहाज रखेंगे
जाता है तो अपनी यादे भी ले जाए
के इसका हम अब क्या करेंगे
जो उड़ाई नींदे वो वापिस भी दे
के हम भी चैन की सांस भरेंगे
हा कुछ कंगन बिंदी तोहफे भी है उसके
अब नहीं काम के मेरे तो उसको ही वापिस भी करेंगे
वापिसी का सवाल आया ही है तो हिसाब पूरा करेंगे
एक एक नींद, एक एक ख्वाब
का बकाया हम क्यों भरेंगे


आते थे उनसे मिलकर aate the unse milkar

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आते थे उनसे मिलकर
बरसते थी बुँदे रात भर
लगता था के जैसे आई हो
पर्वतो से घटाए मिलकर

तेरे सिवा न थी मंजिले
तेरे सिवा न थे रास्ते
मानो हर पल रही
मैं तुझमें घिरकर


Sunday 17 March 2019

हवस को है निशाते-कार क्या क्या havas ko hai nishaate kaar kya kya

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हवस को है निशाते-कार क्या क्या
न हो मर‌ना तो जीने का मज़ा क्या

तजाहुल-पेशगी से मुद्दआ क्या
कहां तक ऐ सरापा-नाज़ क्या-क्या

नवाज़िश-हाए-बेजा देखता हूं
शिकायत-हाए-रंगीं का गिला क्या

निगाह-ए-बेमुहाबा चाहता हूं
तग़ाफ़ुल-हाए-तमकीं-आज़मा क्या

फ़रोग़-ए-शोला-ए-ख़स यक-नफ़स है
हवस को पास-ए-नामूस-ए-वफ़ा क्या

नफ़स मौज-ए-मुहीत-ए-बेखुदी है
तग़ाफ़ुल-हाए-साक़ी का गिला क्या

दिमाग़-ए-इत्र-ए-पैराहन नहीं है
ग़म-ए-आवारगी-हाए-सबा क्या

दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हम उस के हैं हमारा पूछना क्या

मुहाबा क्या है मैं ज़ामिन, इधर देख
शहीदान-ए-निगह का ख़ूं बहा क्या

सुन ऐ ग़ारतगर-ए-जिन्स-ए-वफ़ा सुन
शिकस्त-ए-क़ीमत-ए-दिल की सदा क्या

किया किस ने ज़िगरदारी का दावा
शकेब-ए-ख़ातिर-ए-आशिक़ भला क्या

ये क़ातिल वादा-ए-सब्र-आज़मा क्यूं
ये काफ़िर फ़ित्ना-ए-ताक़तरुबा क्या

बला-ए-जां है ग़ालिब उस की हर बात
इबारत क्या, इशारत क्या, अदा क्या


ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता ye na thi hamari kismat visaal ae yaar

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ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अ़हद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता

ग़म अगर्चे जां-गुसिल है, पर कहां बचे कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान "ग़ालिब"!
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता


दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई फ़रमायेंगे क्या dost gamkhavaari mei meri

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दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई  फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या

बे-नियाज़ी हद से गुज़री, बन्दा-परवर  कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'

हज़रत-ए-नासेह गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या

आज वां तेग़ो-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या

गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या

ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां से घबरायेंगे क्या

है अब इस माअ़मूरा में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या


शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रस्तख़ेज़-अन्दाज़ा था shab ae khumar ae shok ae saaki

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शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रस्तख़ेज़-अन्दाज़ा था
ता मुहीत-ए-बादा सूरत-ख़ाना-ए-ख़मियाज़ा था

यक क़दम वहशत से दरस-ए-दफ़तर-ए-इमकां खुला
जादा अजज़ा-ए-दो-आ़लम-दश्त का शीराज़ा था

मान-ए-वहशत-ख़िरामीहा-ए-लैला कौन है
ख़ाना-ए-मजनूं-ए-सहरागिरद बे-दरवाज़ा था

पूछ मत रुसवाई-ए-अन्दाज़-ए-इस्तिग़ना-ए-हुस्न
दस्त मरहून-ए-हिना रुख़सार रहन-ए-ग़ाज़ा था

नाला-ए-दिल ने दिये औराक़-ए-लख़त-ए-दिल ब बाद
यादगार-ए-नाला इक दीवान-ए-बे-शीराज़ा था

हूं चिराग़ां-ए-हवस जूं काग़ज़-ए-आतिश-ज़दा
दाग़ गरम-ए-कोशिश-ए-ईजाद-ए-दाग़-ए-ताज़ा था

बे-नवाई तर सदा-ए-नग़मा-ए-शुहरत असद
बोरिया यक नैसितां-आ़लम बुलंद दरवाज़ा था


बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना bas ki dushvar hai har kaam ka

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बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

गिरियां चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबां होना

वाए, दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना

जल्वा अज़-बसकि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आईना भी चाहे है मिज़गां होना

इशरते-क़त्लगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना

ले गये ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-निशात[12]
तू हो और आप बसद-रंग[13] गुलिस्तां होना

इशरत-ए-पारा-ए-दिल[14] ज़ख़्म-ए-तमन्ना ख़ाना
लज़्ज़त-ए-रेश-ए-जिग़र[15] ग़र्क़-ए-नमकदां[16] होना

की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा[17] से तौबा
हाय उस ज़ूद-पशेमां[18] का पशेमां[19] होना

हैफ़[20] उस चार गिरह[21] कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना


एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब ek ek katre ka mujhe dena

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एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर, वदीअ़त-ए-मिज़गान-ए-यार था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक-शहर-आरज़ू
तोड़ा जो तूने आईना तिमसाल-दार था

गलियों में मेरी नाश को खींचे फिरो कि मैं
जां-दादा-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़ आबदार था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था

किस का जुनून-ए-दीद तमन्ना-शिकार था
आईना-ख़ाना वादी-ए-जौहर-ग़ुबार था

किस का ख़याल आईना-ए-इन्तिज़ार था
हर बरग-ए-गुल के परदे में दिल बे-क़रार था

जूं ग़ुन्चा-ओ-गुल आफ़त-ए-फ़ाल-ए-नज़र न पूछ
पैकां से तेरे जलवा-ए-ज़ख़म आशकार था

देखी वफ़ा-ए-फ़ुरसत-ए-रंज-ओ-निशात-ए-दहर
ख़मियाज़ा यक दराज़ी-ए-उमर-ए-ख़ुमार था

सुबह-ए-क़यामत एक दुम-ए-गुरग थी असद
जिस दश्त में वह शोख़-ए-दो-आ़लम शिकार था


शब, कि बर्क़े-सोज़े-दिल से ज़ोहरा-ए-अब्र आब था sab ki barke soz ae dil se

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शब, कि बर्क़े-सोज़े-दिल से ज़ोहरा-ए-अब्र आब था
शोला-ए-जवाला हर इक हल्क़ा-ए-गिरदाब था

वां करम को उज़्रे-बारिश था इनागीरे-ख़िराम
गिरये से यां पुनबा-ए-बालिश कफ़े-सैलाब था

वां ख़ुद आराई को था मोती पिरोने का ख़याल
यां हुजूमे-अश्क में तारे-निगह नायाब था

जल्वा-ए-गुल ने किया था वां चिराग़ां आबे-जू
यां रवां मिज़गाने-चश्मे-तर से ख़ूने-नाब था

यां सरे-पुर-शोर बेख़्वाबी से था दीवार-जू
वां वो फ़रक़े-नाज़ महवे-बालिशे-कमख़्वाब था

यां नफ़स करता था रौशन शम्अ-ए-बज़मे-बेख़ुदी
जल्वा-ए-गुल वां बिसाते-सोहबते-अहबाब था

फ़रश से ता-अरश वां तूफ़ां था मौज-ए-रंग का
यां ज़मीं से आस्मां तक सोख़्तन का बाब था

नागहां इस रंग से ख़ूं-नाबा टपकाने लगा
दिल कि ज़ौक़-ए-काविश-ए-नाख़ुन से लज़्ज़त-याब था

नाला-ए-दिल में शब अन्दाज़-ए-असर नायाब था
था सिपन्द-ए-बज़्म-ए-वस्ल-ए-ग़ैर, गो बेताब था

मक़दम-ए-सैलाब से दिल क्या निशात-आहंग है
ख़ाना-ए-आशिक़ मगर साज़-ए-सदा-ए-आब था

नाज़िश-ए-अय्याम-ए-ख़ाकस्तर-नशीनी क्या कहूं
पहलूए-अन्देशा वक़्फ़-ए-बिस्तर-ए-संजाब था

कुछ न की अपने जुनून-ए-ना-रसा ने, वरना यां
ज़र्रा-ज़र्रा रूकश-ए-ख़ुर्शीद-ए-आलम-तान था

आज क्यों परवा नहीं अपने असीरों की तुझे
कल तलक तेरा भी दिल मेहर-ओ-वफ़ा का बाब था

याद कर वह दिन कि हर इक हल्क़ा तेरा दाम का
इन्तज़ार-ए-सैद में इक दीदा-ए-बेख़्वाब था

मैं ने रोका रात ग़ालिब को वगरना देखते
उसके सैल-ए-गिरयां में गरदूं कफ़-ए-सैलाब था


बज़्मे-शाहनशाह में अशआ़र का दफ़्तर खुला bajm ae shahanshaah mei

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बज़्मे-शाहनशाह में अशआ़र का दफ़्तर खुला
रखियो या रब! यह दरे-ग़नजीना-ए-गौहर खुला

शब हुई फिर अनजुमे-रख़्शन्दा का मंज़र खुला
इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुतकदे का दर खुला

गरचे हूं दीवाना, पर क्यों दोस्त का खाऊं फ़रेब
आस्तीं में दश्ना पिनहां हाथ में नश्तर खुला

गो न समझूं उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
पर यह क्या कम है कि मुझसे वो परी-पैकर खुला

है ख़याले-हुस्न में हुस्ने-अ़मल  का सा ख़याल
ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला

मुंह न खुलने पर वो आ़लम है कि देखा ही नहीं
ज़ुल्फ़ से बढ़कर नक़ाब उस शोख़ के मुंह पर खुला

दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया
जितने अरसे में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

क्यों अंधेरी है शबे-ग़म? है बलाओं का नुज़ूल
आज उधर ही को रहेगा दीदा-ए-अख़्तर खुला

क्या रहूं ग़ुरबत में ख़ुश? जब हो हवादिस का यह हाल
नामा लाता है वतन से नामाबर  अक्सर खुला

उसकी उम्मत[23] में हूं मैं, मेरे रहें क्यों काम बंद
वास्ते जिस शह[24] के ग़ालिब गुम्बदे-बे-दर[25] खुला