16 aane

Saturday 21 May 2022

तू जुदा हुआ

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तू जुदा हुआ, तेरा ख्वाब क्यू है जुड़ा हुआ
तेरा आना भी तेरी मर्जी, तेरा जाना भी तेरी मर्जी
फिर क्यू हर पल लगे है के बुरा हुआ
हंसते थे साथ में, रोये भी थे साथ में
सब याद है मुझे तो तू कैसे भुला गया
जिंदगी तू थी मेरी, हर ख्वाइश तू थी मेरी
तेरा जाना यानी मेरा मरना तय हुआ


Wednesday 23 June 2021

हर बंधन में हो आजादी की चाह ये जरूरी नही

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हर बंधन में हो आजादी की चाह
ये जरूरी नही
शर्त बस इतनी के बेड़ी मोहब्बत और ख़लूस कि हो
मजबूरी की नही

तू चाहता है मुझको इतना काफी है मेरे लिए
जब दिल मिल जाये तो मीलों की दूरी
कोई दूरी तो नही

हर बंधन में हो आजादी की चाह
ये जरूरी नही

बस तुझे देखना बस तुझे सोचना अच्छा लगता है
इसी को मोहब्बत कहते है जनाब,
कोई जी हुजूरी नही

हर बंधन में हो आजादी की चाह
ये जरूरी नही


तू मिला तो मानो सब मिल गया,
आंखों को ख्वाबो का घर मिल गया
अब लगता है मुकम्मल हु मै और कोई
हसरत अधूरी नही

हर बंधन में हो आजादी की चाह
ये जरूरी नही


Friday 16 October 2020

Sath ho pyar ho baat ho ladai ho magar duri na ho,

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Sath ho pyar ho baat ho ladai ho  magar duri na ho, 
Baate ho kisse ho, gana bhi ho bajana bhi ho
Mgar photo khinchana jaruri na ho
Hase , chutkule sunaye, par ek duje ka  majak na banaye

Chuppi ho to khamoshi na ho
Naraj ho to nafrat na ho

Mandir jaye na jaye pr ghar mandir se kam na ho
Murti na bhi dekhe to bhi dil me dekh paye 

Sath ho par judkar ek hokar na ki bandhkar
Ajaadi itni jaruri nahi par ta

एक तकिये पर ही दोनों संग संग बूढ़े हो

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कभी तुम थक कर तकिये पर चूर हो जाओ
इतनी इजाजत तो है तुमको पर ये नही के मुझसे दूर हो जाओ

मौसम तो आते जाते रहेंगे हर बरस इस बरस की तरह
मगर तुमको ये इजाजत नही के अपनी चादर लेकर अलग सो जाओ

ना चूमना हाथ, न गले से लगाना कभी कभी होगी घुटन भी 
पर फिर भी मंजूर नही के सांसो से दूर हो जाओ

मुझे मालूम है मेरे जितनी शायराना अदा नही तुम्हारी बातों में 
पर फिर भी अपनी सांसो को हमेशा मेरे कानों पे गुनगुनाओ

ये जो तकिया दिया है अलग तुम्हे इसीलिए नही के तुम सो जाओ
बल्कि लम्हे दिए है कुछ तुम्हे, के तुम फिर से मेरे खवाबो मैं खो जाओ

होली दीवाली से ही रंगीन नही होती दिलो की   दुनिया
मजा तो तब है गर एक तकिये पर ही दोनों संग संग बूढ़े हो जाये

Tuesday 22 September 2020

हह

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लाल रंग मेरा पसंदीदा तो नहीं
मगर मुझे बहुत प्यारा था
लाल रंग की चूड़िया
लाल रंग की बिंदी
होंठो पे हो लाली लाल
गाल भी शरमाकर हो लाल
इन्ही दो चार वजहों से लाल रंग मेरा नहीं
सब लड़कियो का प्यारा होता है

मगर सच मनो ये लाल रंग है फरेबी
इसके जाल मै कही न फस जाना तुम
मुझे लाल रंग के कपडे मिले
और मिला लाल लाल श्रृंगार
कहा मिलेगा प्रियतम
तुम दाल देना बाहो के हार
मगर सच मानो ये लाल रंग है फ़रेबी
जो जो वादे देगा वो पुरे होंगे कभी नहीं

मै लाल रंग मे लिपट के लाल परी क बन गई
सपनो के आस्मां मे दूर कही थी उड़ रही


Thursday 2 April 2020

बस मुस्करा देना

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काश कभी आंखे खोलू
तो तुम सामने हो मेरे
तुम मुझे देखकर बस हमेशा की तरह मुस्करा देना
मैं भी पहले जैसे शरमा जाउंगी
चेहरे की झुर्रियां अचानक गायब सी हो जाएगी
गालो पे फिर वो पुरानी लाली छा जाएगी
खिड़की के पर्दो से छनती धूप चेहरे पे नूर बनकर गई जाएगी
हवा भी मदमस्त गजगामिनी की तरह जुल्फों बिखरा जाएगी

तुम मुझे देखकर बस हमेशा की तरह मुस्करा देना

तुम सामने तो आना एक बार
देखना समय भी पलटेगा इस बार
बीस बरस पहले वाला सावन फिर लौट आएगा
कॉफी की जगह कड़क चाय का जादू चल जाएगा
होटल रेस्तरां में पिज़्ज़ा बर्गर नही खाने मुझे
बस गली के मोड़ पे वो गोलगप्पे चखा देना
तुम मुझे देखकर बस हमेशा की तरह मुस्करा देना


टेडी बीयर नही चाहिए आज भी मुझे
सेल वाले बाजार से कुछ नया सूट दिलवा देना
हो सके तो मैचिंग चुड़िया भी पहना देना
वैसे आजकल फैशन नही चमक सितारों का
मगर मुझे सितारों वाली चुनरी ही दिलवा देना
बस तुम एक बार आ जाना
तुम्हारी चॉइस में कुछ नखरे दिखाऊ तो पहले की तरह समझा देना
कहना के और ले दूंगा, इसको भी बनवा लेना

तुम मुझे देखकर बस हमेशा की तरह मुस्करा देना

दिन दिन करके बिताये है बरसो मैंने
तुम भी दिनों में सदियों के चाँव मिटा देना
मुरझाई सी आंखों में सुनहरे ख्वाब सजा देना
बालो की सफेदी मैं कोई गुलाब सजा देना
तुम मुझे देखकर बस हमेशा की तरह मुस्करा देना


कोरोना पर कविता carona par kavita

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ऐसे दिन फिर कब आएंगे
के सब दुश्मनी जात पात भूल,
मानव का धर्म निभाएंगे
सोना चांदी की फिक्र नही
रोटी चावल मैं भी शुक्र मनाएंगे
फैशन की अब कोई होड़ नही
वास्तविक खूबसूरती पाएंगे
मंदिर के दरवाजे बंद हुए
दिल में मंदिर बनाएंगे
चाऊमीन, समोसे और भेलपुरी
आज से घर ही बनाएंगे
पड़ोसी कही भूखा तो नही
उसका भी हाल पुछके आएंगे
कॅरोना तुम तो जल्दी चले जाना
मगर अपनी अच्छाइयां यही छोड़ जाना
जो काम गीता कुरान बाइबिल न कर पाए
उसके लिए कॅरोना का आभार जताएंगे


Monday 23 March 2020

तुझ पर खून सवार था

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कभी आसमान में उड़ते परिंदे तूने देखे ही नही
तुझे तो बस खुद को बुलंद मुकाम पे लाने का जुनून सवार था
अब होश आया तो धरती भी कम हो गई तेरे लिए
कितना तुझ पर खून सवार था


Tuesday 3 March 2020

तितली

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नीली, पीली औ’ चटकीली
पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल,
प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही डोल?
चाँदी-सा फैला है प्रकाश,
चंचल अंचल-सा मलयानिल,
है दमक रही दोपहरी में
गिरि-घाटी सौ रंगों में खिल!
तुम मधु की कुसुमित अप्सरि-सी
उड़-उड़ फूलों को बरसाती,
शत इन्द्र चाप रच-रच प्रतिपल
किस मधुर गीति-लय में जाती?
तुमने यह कुसुम-विहग लिवास
क्या अपने सुख से स्वयं बुना?
छाया-प्रकाश से या जग के
रेशमी परों का रंग चुना?
क्या बाहर से आया, रंगिणि!
उर का यह आतप, यह हुलास?
या फूलों से ली अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु की मिठास?
चाँदी का चमकीला आतप,
हिम-परिमल चंचल मलयानिल,
है दमक रही गिरि की घाटी
शत रत्न-छाय रंगों में खिल!
--चित्रिणि! इस सुख का स्रोत कहाँ
जो करता निज सौन्दर्य-सृजन?
’वह स्वर्ग छिपा उर के भीतर’--
क्या कहती यही, सुमन-चेतन?

रचनाकाल: मई’१९३५


सन्ध्या

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कहो, तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया-छबि में आप,
सुनहला फैला केश-कलाप,--
मधुर, मंथर, मृदु, मौन!
मूँद अधरों में मधुपालाप,
पलक में निमिष, पदों में चाप,
भाव-संकुल, बंकिम, भ्रू-चाप,
मौन, केवल तुम मौन!
ग्रीव तिर्यक, चम्पक-द्युति गात,
नयन मुकुलित, नत मुख-जलजात,
देह छबि-छाया में दिन-रात,
कहाँ रहती तुम कौन?
अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल,
मधुर नूपुर-ध्वनि खग-कुल-रोल,
सीप-से जलदों के पर खोल,
उड़ रही नभ में मौन!
लाज से अरुण-अरुण सुकपोल,
मदिर अधरों की सुरा अमोल,--
बने पावस-घन स्वर्ण-हिंदोल,
कहो, एकाकिनि, कौन?
मधुर, मंथर तुम मौन?

रचनाकाल: सितम्बर’१९३०


द्वाभा के एकाकी प्रेमी

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द्वाभा के एकाकी प्रेमी,
नीरव दिगन्त के शब्द मौन,
रवि के जाते, स्थल पर आते
कहते तुम तम से चमक--कौन?
सन्ध्या के सोने के नभ पर
तुम उज्ज्वल हीरक सदृश जड़े,
उदयाचल पर दीखते प्रात
अंगूठे के बल हुए खड़े!
अब सूनी दिशि औ’ श्रान्त वायु,
कुम्हलाई पंकज-कली सृष्टि;
तुम डाल विश्व पर करुण-प्रभा
अविराम कर रहे प्रेम-वृष्टि!
ओ छोटे शशि, चाँदी के उडु!
जब जब फैले तम का विनाश,
तुम दिव्य-दूत से उतर शीघ्र
बरसाओ निज स्वर्गिक प्रकाश!

रचनाकाल: मई’१९३५


खोलो, मुख से घूँघट

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छाया
खोलो, मुख से घूँघट खोलो,
हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो!
क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन,
अथवा भीतर जीवन-कम्पन?
कल्पना मात्र मृदु देह-लता,
पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता!
है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता,
है दृश्य, दृष्टि पर सके बता!
पट पर पट केवल तम अपार,
पट पर पट खुले, न मिला पार!
सखि, हटा अपरिचय-अंधकार
खोलो रहस्य के मर्म द्वार!
मैं हार गया तह छील-छील,
आँखों से प्रिय छबि लील-लील,
मैं हूँ या तुम? यह कैसा छ्ल!
या हम दोनों, दोनों के बल?
तुम में कवि का मन गया समा,
तुम कवि के मन की हो सुषमा;
हम दो भी हैं या नित्य एक?
तब कोई किसको सके देख?
ओ मौन-चिरन्तन, तम-प्रकाश,
चिर अवचनीय, आश्चर्य-पाश!
तुम अतल गर्त, अविगत, अकूल,
फैली अनन्त में बिना मूल!
अज्ञेय गुह्य अग-जग छाई,
माया, मोहिनि, सँग-सँग आई!
तुम कुहुकिनि, जग की मोह-निशा,
मैं रहूँ सत्य, तुम रहो मृषा!

रचनाकाल: अप्रैल’१९३६