Tuesday 15 January 2019

सर्कस का तमाशा मोहब्बत उसकी, circus ka tamasha mohabbat uski

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गजब सर्कस का तमाशा है मोहब्बत उसकी
तमाशबीन भी उलझ जाते है के हँसे या रोये

जिसे देखना चाहते है उम्र भर हँसता हुआ
वो मुझको ही लतीफा बनाकर हँसने लगा

वो देखो वो शेर है ये हंटर पे जो नाचता है
जंगल का राजा कैसे पिंजरे में दहाड़ता है

वो मासूम कबूतरी,के जिसपे सबको प्यार आये उसको अपने हुस्न से आगे कुछ न नजर आये


Monday 14 January 2019

बेवफा है तू, bevafaa hai tu

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साँस सांस पे तुझे कहेंगे के बेवफा है तू
तू लाख दुहाई अपनी मजबूरियों के
मगर सच यही है के जानता है तू
के बेवफा है तू

यु तो संग मरने की कस्मे खाई तूने
तो आज कैसे डर गया है तू
होगा तू जिन्दा इस दुनिया के लिए
मगर मेरे लिए मर गया है तू
क्योकि बेवफा है तू



तेरा इंतज़ार किया , तेरा ऐतबार किया
पर आज अपने कहे से मुकर गया है तू
तू अंधेरो में कही गुम होता तो शायद माफ़ कर देती
मगर उजालो में ही मुझसे दूर हुआ है तू
क्योंकि बेवफा है तू

Sunday 6 January 2019

ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तेरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई julf jo rukh par tere ae mehar

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ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तेरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई
हम को अपनी तीरा-रोज़ी की हक़ीक़त खुल गई.

क्या तमाशा है रग-ए-लैला में डूबा नीश्तर
फ़स्द-ए-मजनूँ बाइस-ए-जोश-ए-मोहब्बत खुल गई.

दिल का सौदा इक निगह पर है तेरी ठहरा हुआ
नर्ख़ तू क्या पूछता है अब तो क़ीमत खुल गई.

आईने को नाज़ था क्या अपने रू-ए-साफ़ पर
आँख ही पर देखते ही तेरी सूरत खुल गई.

थी असीरान-ए-क़फ़स को आरज़ू परवाज़ की
खुल गई खिड़की क़फ़स की क्या के क़िस्मत खुल गई.

तेरे आरिज़ पर हुआ आख़िर ग़ुबार-ए-ख़त नुमूद
खुल गई आईना-रू दिल की कुदूरत खुल गई.

बे-तकल्लुफ़ आए तुम खोले हुए बंद-ए-क़बा
अब गिरह दिल की हमारे फ़िल-हक़ीक़त खुल गई.

बाँधी ज़ाहिद ने तवक्कुल पर कमर सौ बार चुस्त
लेकिन आख़िर बाइस-ए-सुस्ती-ए-हिम्मत खुल गई.

खुलते खुलते रुक गए वो उन को तू ने ऐ 'ज़फ़र'
सच कहो किस आँख से देखा के चाहत खुल गई.


ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो, ye kissa vo nahi

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ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
मेरे फ़साना-ए-ग़म को मेरी ज़बाँ से सुनो.

सुनाओ दर्द-ए-दिल अपना तो दम-ब-दम फ़रयाद
मिसाल-ए-नय मेरी हर एक उस्तुख़्वाँ से सुनो.

करो हज़ार सितम ले के ज़िक्र क्या यक यार
शिकायत अपनी तुम इस अपने नीम-जाँ से सुनो.

ख़ुदा के वास्ते ऐ हम-दमो न बोलो तुम
पयाम लाया है क्या नामा-बर वहाँ से सुनो.

तुम्हारे इश्क़ ने रुसवा किया जहाँ में हमें
हमारा ज़िक्र न तुम क्यूँके इक जहाँ से सुनो.

सुनो तुम अपनी जो तेग़-ए-निगाह के औसाफ़
जो तुम को सुनना हो उस शोख़-ए-दिल-सिताँ से सुनो.

'ज़फ़र' वो बोसा तो क्या देगा पर कोई दुश्नाम
जो तुम को सुनना हो उस शोख़-ए-दिल-सिताँ से सुनो.


वाक़िफ़ हैं हम के हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं, vaakif hai hum hajrate

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वाक़िफ़ हैं हम के हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं
और फिर हम उन के यार हैं हम ऐसे शख़्स हैं.

दीवाने तेरे दश्त में रखेंगे जब क़दम
मजनूँ भी लेगा उन के क़दम ऐसे शख़्स हैं.

जिन पे हों ऐसे ज़ुल्म ओ सितम हम नहीं वो लोग
हों रोज़ बल्के लुत्फ़ ओ करम ऐसे शख़्स हैं.

यूँ तो बहुत हैं और भी ख़ूबान-ए-दिल-फ़रेब
पर जैसे पुर-फ़न आप हैं कम ऐसे शख़्स हैं.

क्या क्या जफ़ा-कशों पे हैं उन दिल-बरों के ज़ुल्म
ऐसों के सहते ऐसे सितम ऐसे शख़्स हैं.

दीं क्या है बल्के दीजिए ईमान भी उन्हें
ज़ाहिद ये बुत ख़ुदा की क़सम ऐसे शख़्स हैं.

आज़ुर्दा हूँ अदू के जो कहने पे ऐ ‘ज़फ़र’
ने ऐसे शख़्स वो हैं न हम ऐसे शख़्स हैं.


वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है, vaa rasai nahi to fir

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वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है
ये जुदाई नहीं तो फिर क्या है.

हो मुलाक़ात तो सफ़ाई से
और सफ़ाई नहीं तो फिर क्या है.

दिल-रुबा को है दिल-रुबाई शर्त
दिल-रुबाई नहीं तो फिर क्या है.

गिला होता है आशनाई में
आशनाई नहीं तो फिर क्या है.

अल्लाह अल्लाह रे उन बुतों का ग़ुरूर
ये ख़ुदाई नहीं तो फिर क्या है.

मौत आई तो टल नहीं सकती
और आई नहीं तो फिर क्या है.

मगस-ए-क़ाब अग़निया होना है
बे-हयाई नहीं तो फिर क्या है.

बोसा-ए-लब दिल-ए-शिकस्ता को
मोम्याई नहीं तो फिर क्या है.

नहीं रोने में गर ‘ज़फ़र’ तासीर
जग-हँसाई नहीं तो फिर क्या है.


वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है vaa iraada aaj us kaatil

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वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है
और यहाँ कुछ आरज़ू बिस्मिल के दिल में और है.

वस्ल की ठहरावे ज़ालिम तो किसी सूरत से आज
वर्ना ठहरी कुछ तेरे माइल के दिल में और है.

है हिलाल ओ बद्र में इक नूर पर जो रोशनी
दिल में नाक़िस के है वो कामिल के दिल में और है.

पहले तो मिलता है दिल-दारी से क्या क्या दिल-रुबा
बाँधता मंसूबे फिर वो मिल के दिल में और है.

है मुझे बाद-अज़-सवाल-ए-बोसा ख़्वाहिश वस्ल की
ये तमन्ना एक इस साइल के दिल में और है.

गो वो महफ़िल में न बोला पा गए चितवन से हम
आज कुछ उस रौनक़-ए-महफ़िल के दिल में और है.

यूँ तो है वो ही दिल-ए-आलम के दिल में ऐ ‘ज़फ़र’
उस का आलम मर्द-ए-साहब दिल के दिल में और है.


टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच, tukde nahi hai ansuo mei

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टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच
सुरख़ाब बैठे पानी में हैं मिल के चार पाँच.

मुँह खोले हैं ये ज़ख़्म जो बिस्मिल के चार पाँच
फिर लेंगे बोसे ख़ंजर-ए-क़ातिल के चार पाँच.

कहने हैं मतलब उन से हमें दिल के चार पाँच
क्या कहिए एक मुँह हैं वहाँ मिल के चार पाँच.

दरया में गिर पड़ा जो मेरा अश्क एक गर्म
बुत-ख़ाने लब पे हो गए साहिल के चार पाँच.

दो-चार लाशे अब भी पड़े तेरे दर पे हैं
और आगे दब चुके हैं तले गिल के चार पाँच.

राहें हैं दो मजाज़ ओ हक़ीक़त है जिन का नाम
रस्ते नहीं हैं इश्क़ की मंज़िल के चार पाँच.

रंज ओ ताब मुसीबत ओ ग़म यास ओ दर्द ओ दाग़
आह ओ फ़ुग़ाँ रफ़ीक़ हैं ये दिल के चार पाँच.

दो तीन झटके दूँ जूँ ही वहशत के ज़ोर में
ज़िंदा में टुकड़े होवें सलासिल के चार पाँच.

फ़रहाद ओ क़ैस ओ वामिक़ ओ अज़रा थे चार दोस्त
अब हम भी आ मिले तो हुए मिल के चार पाँच.

नाज़ ओ अदा ओ ग़मज़ा निगह पंज-ए-मिज़ा
मारें हैं एक दिल को ये पिल पिल के चार पाँच.

ईमा है ये के देवेंगे नौ दिन के बाद दिल
लिख भेजे ख़त में शेर जो बे-दिल के चार पाँच.

हीरे के नव-रतन नहीं तेरे हुए हैं जमा
ये चाँदनी के फूल मगर खिल के चार पाँच.

मीना-ए-नुह-फ़लक है कहाँ बादा-ए-नशात
शीशे हैं ये तो ज़हर-ए-हलाहिल के चार पाँच.

नाख़ुन करें हैं ज़ख़्मों को दो दो मिला के एक
थे आठ दस सो हो गए अब छिल के चार पाँच.

गर अंजुम-ए-फ़लक से भी तादाद कीजिए
निकलें ज़्यादा दाग़ मेरे दिल के चार पाँच.

मारें जो सर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम
दस पाँच टुकड़े सर के हों और सिल के चार पाँच.

मान ऐ 'ज़फ़र' तू पंज-तन ओ चार-यार को
हैं सदर-ए-दीन की यही महफ़िल के चार पाँच.


तफ्ता जानों का इलाज ऐ , taafta jaano ka ilaaj

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तफ़्ता-जानों का इलाज ऐ अहल-ए-दानिश और है
इश्क़ की आतिश बला है उस की सोज़िश और है.

क्यूँ न वहशत में चुभे हर मू ब-शक्ल-ए-नीश-तेज़
ख़ार-ए-ग़म की तेरे दीवाने की काविश और है.

मुतरिबो बा-साज़ आओ तुम हमारी बज़्म में
साज़-ओ-सामाँ से तुम्हारी इतनी साज़िश और है.

थूकता भी दुख़्तर-ए-रज़ पर नहीं मस्त-ए-अलस्त
जो के है उस फ़ाहिशा पर ग़श वो फ़ाहिश और है.

ताब क्या हम-ताब होवे उस से खुर्शीद-ए-फ़लक
आफ़ताब-ए-दाग़-ए-दिल की अपने ताबिश और है.

सब मिटा दें दिल से हैं जितनी के उस में ख़्वाहिशें
गर हमें मालूम हो कुछ उस की ख़्वाहिश और है.

अब्र मत हम-चश्म होना चश्म-ए-दरया-बार से
तेरी बारिश और है और उस की बारिश और है.

है तो गर्दिश चर्ख़ की भी फ़ितना-अंगेज़ी में ताक़
तेरी चश्म-ए-फ़ितना-ज़ा की लेक गर्दिश और है.

बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'
क्या कहूँ तुझ से के वो तर्ज़-ए-परस्तिश और है.


शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़, shaane ki har jabaan se

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शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़
चीरे है सीना रात को ये मू-शगाफ़-ए-ज़ुल्फ़.

जिस तरह से के काबे पे है पोशिश-ए-सियाह
इस तरह इस सनम के है रुख़ पर ग़िलाफ़-ए-ज़ुल्फ़.

बरहम है इस क़दर जो मेरे दिल से ज़ुल्फ़-ए-यार
शामत-ज़दा ने क्या किया ऐसा ख़िलाफ़-ए-ज़ुल्फ़.

मतलब न कुफ़्र ओ दीं से न दैर ओ हरम से काम
करता है दिल तवाफ़-ए-इज़ार ओ तवाफ़-ए-जु़ल्फ़.

नाफ-ए-ग़ज़ाल-ए-चीं है के है नाफ़ा-ए-ततार
क्यूँकर कहूँ के है गिरह-ए-जुल्फ़ नाफ़-ए-जुल्फ़.

आपस में आज दस्त-ओ-गिरेबाँ है रोज़ ओ शब
ऐ मेहर-वश ज़री का नहीं मू-ए-बाफ़-ए-जुल्फ़.

कहता है कोई जीम कोई लाम ज़ुल्फ़ को
कहता हूँ मैं ‘ज़फ़र’ के मुसत्तह है काफ़-ए-ज़ुल्फ़.


सब रंग में उस गुल की मेरे शान है मौजूद, sab rang mei us gul ki

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सब रंग में उस गुल की मेरे शान है मौजूद
ग़ाफ़िल तू ज़रा देख वो हर आन है मौजूद.

हर तार का दामन के मेरे कर के तबर्रुक
सर-बस्ता हर इक ख़ार-ए-बयाबान है मौजूद.

उर्यानी-ए-तन है ये ब-अज़-ख़िलअत-ए-शाही
हम को ये तेरे इश्क़ में सामान है मौजूद.

किस तरह लगावे कोई दामाँ को तेरे हाथ
होने को तू अब दस्त-ओ-गिरेबान है मौजूद.

लेता ही रहा रात तेरे रुख़ की बलाएँ
तू पूछ ले ये जुल्फ़-ए-परेशान है मौजूद.

तुम चश्म-ए-हक़ीक़त से अगर आप को देखो
आईना-ए-हक़ में दिल-ए-इंसान है मौजूद.

कहता है ‘ज़फ़र’ हैं ये सुख़न आगे सभों के
जो कोई यहाँ साहब-ए-इरफ़ान है मौजूद.


रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा, rookh jo jer a sambal

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रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़ताब आ जाएगा.

तेरा एहसाँ होगा क़ासिद गर शताब आ जाएगा
सब्र मुझ को देख कर ख़त का जवाब आ जाएगा.

हो न बे-ताब इतना गर उस का इताब आ जाएगा
तू ग़ज़ब में ऐ दिल-ए-ख़ाना-ए-ख़राब आ जाएगा.

इस क़दर रोना नहीं बेहतर बस अब अश्कों को रोक
वर्ना तूफ़ाँ देख ऐ चश्म-ए-पुर-आब आ जाएगा.

पेश होवेगा अगर तेरे गुनाहों का हिसाब
तंग ज़ालिम अरसा-ए-रोज़-ए-हिसाब आ जाएगा.

देख कर दस्त-ए-सितम में तेरी तेग़-ए-आब-दार
मेरे हर ज़ख़्म-ए-जिगर के मुँह में आब आ जाएगा.

अपनी चश्म-ए-मस्त की गर्दिश न ऐ साक़ी दिखा
देख चक्कर में अभी जाम-ए-शराब आ जाएगा.

ख़ूब होगा हाँ जो सीने से निकल जाएगा तू
चैन मुझ को ऐ दिल-ए-पुर-इज़्तिराब आ जाएगा.

ऐ ‘ज़फ़र’ उठ जाएगा जब पर्द-ए-शर्म-ओ-हिजाब
सामने वो यार मेरे बे-हिजाब आ जाएगा.


क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला, kaaru utha ke sar pe suna

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क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला
दुनिया से क्या बख़ील ब-जुज़ रंज ले चला.

मिन्नत थी बोसा-ए-लब-ए-शीरीं के दिल मेरा
मुझ को सोए मज़ार-ए-शकर गंज ले चला.

साक़ी सँभालता है तो जल्दी मुझे सँभाल
वर्ना उड़ा के पाँ नशा-ए-बंज ले चला.

दौड़ा के हाथ छाती पे हम उन की यूँ फिरे
जैसे कोई चोर आ के हो नारंज ले चला.

चौसर का लुत्फ़ ये है के जिस वक़्त पो पड़े
हम बर-चहार बोले तो बर-पंज ले चला.

जिस दम ‘ज़फ़र’ ने पढ़ के ग़ज़ल हाथ से रखी
आँखों पे रख हर एक सुख़न-संज ले चला.


पान की सुर्ख़ी नहीं लब पर बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार के, paan ki surkhi nahi lab par

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पान की सुर्ख़ी नहीं लब पर बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार के
लग गया है ख़ून-ए-आशिक़ मुँह को इस तलवार के.

ख़ाल-ए-आरिज़ देख लो हल्क़े में ज़ुल्फ़-ए-यार के
मार-ए-मोहरा गर न देखा हो दहन में मार के.

अंजुम-ए-ताबाँ फ़लक पर जानती है जिस को ख़ल्क़
कुछ शरारे हैं वो मेरी आह-ए-आतिश-बार के.

तूबा-ए-जन्नत से उस को काम क्या है हूर-वश
जो के हैं आसूदा साए में तेरी दीवार के.

पूछते हो हाल क्या मेरा क़िमार-ए-इश्क़ में
झाड़ बैठा हाथ मैं नक़द-ए-दिल-ओ-दीं हार के.

ये हुई तासीर इश्क़-ए-कोह-कन से संग-ए-आब
अश्क जारी अब तलक चश्मों से हैं कोहसार के.

है वो बे-वहदत के जो समझे है कुफ़्र ओ दीं में फ़र्क़
रखती है तस्बीह रिश्ता तार से ज़ुन्नार के.

वादा-ए-दीदार जो ठहरा क़यामत पर तो याँ
रोज़ होती है क़यामत शौक़ में दीदार के.

होशयारी है यही कीजे ‘ज़फ़र’ इस से हज़र
देखिए जिस को नशे में बादा-ए-पिंदार के.


पान खा कर सुरमा की तहरीर फिर खींची तो क्या, paan khaa kar soorma ki tahrir

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पान खा कर सुरमा की तहरीर फिर खींची तो क्या
जब मेरा ख़ूँ हो चुका शमशीर फिर खींची तो क्या.

ऐ मुहव्विस जब के ज़र तेरे नसीबों में नहीं
तू ने मेहनत भी पय-ए-इक्सीर फिर खींची तो क्या.

गर खिंचे सीने से नावक रूह तू क़ालिब से खींच
ऐ अजल जब खिंच गया वो तीर फिर खींची तो क्या.

खींचता था पाँव मेरा पहले ही ज़ंजीर से
ऐ जुनूँ तू ने मेरी ज़ंजीर फिर खींची तो क्या.

दार ही पर उस ने खींचा जब सर-ए-बाज़ार-इश्क
लाश भी मेरी पय-ए-तशहीर फिर खींची तो क्या.

खींच अब नाला कोई ऐसा के हो उस को असर
तू ने ऐ दिल आह-ए-पुर-तासीर फिर खींची तो क्या.

चाहिए उस का तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना
देख कर तस्वीर को तस्वीर फिर खींची तो क्या.

खींच ले अव्वल ही से दिल की इनान-ए-इख़्तियार
तू ने गर ऐ आशिक़-ए-दिल-गीर फिर खींची तो क्या.

क्या हुआ आगे उठाए गर ‘ज़फ़र’ अहसान-ए-अक़्ल
और अगर अब मिन्नत-ए-तदबीर फिर खींची तो क्या.


निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ, nibaah baat ka us heela

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निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ
उधर से क्या न हुआ पर इधर से कुछ न हुआ.

जवाब-ए-साफ़ तो लाता अगर न लाता ख़त
लिखा नसीब का जो नामा-बर से कुछ न हुआ.

हमेशा फ़ितने ही बरपा किए मेरे सर पर
हुआ ये और तो उस फ़ितना-गर से कुछ न हुआ.

बला से गिर्या-ए-शब तू ही कुछ असर करता
अगरचे इश्क़ में आह-ए-सहर से कुछ न हुआ.

जला जला के किया शम्मा साँ तमाम मुझे
बस और तो मुझे सोज़-ए-जिगर से कुछ न हुआ.

रहीं अदू से वही गर्म-जोशियाँ उस की
इस आह-ए-सर्द और इस चश्म-ए-तर से कुछ न हुआ.

उठाया इश्क़ में क्या क्या न दर्द-ए-सर मैं ने
हुसूल पर मुझे उस दर्द-ए-सर से कुछ न हुआ.

शब-ए-विसाल में भी मेरी जान को आराम
अज़ीज़ो दर्द-ए-जुदाई के डर से कुछ न हुआ.

न दुँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था
वो आज ले ही गया और ‘ज़फ़र’ से कुछ न हुआ.


नहीं इश्क़ में उस का तो रंज हमें के क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा, nahi ishq mei uska ranj hame

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नहीं इश्क़ में उस का तो रंज हमें के क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा
ग़म-ए-इश्क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा कोई और बला से रहा न रहा.

दिया अपनी ख़ुदी को जो हम ने उठा वो जो पर्दा सा बीच में था न रहा
रहे पर्दे में अब न वो पर्दा-नशीं कोई दूसरा उस के सिवा न रहा.

न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा.

तेरे रुख़ के ख़याल में कौन से दिन उठे मुझ पे न फ़ितना-ए-रोज़-ए-जज़ा
तेरी ज़ुल्फ़ के ध्यान में कौन सी शब मेरे सर पे हुजूम-ए-बला न रहा.

हमें साग़र-ए-बादा के देने में अब करे देर जो साक़ी तो हाए ग़ज़ब
के ये अहद-ए-नशात ये दौर-ए-तरब न रहेगा जहाँ में सदा न रहा.

कई रोज़ में आज वो मेहर-ए-लिक़ा हुआ मेरे जो सामने जलवा-नुमा
मुझे सब्र ओ क़रार ज़रा न रहा उसे पास-ए-हिजाब-ओ-हया न रहा.

तेरे ख़ंजर ओ तेग़ की आब-ए-रवाँ हुई जब के सबील-ए-सितम-ज़दगाँ
गए कितने ही क़ाफ़िले ख़ुश्क-ज़बाँ कोई तिश्ना-ए-आब-ए-बक़ा न रहा.

मुझे साफ़ बताए निगार अगर तो ये पूछूँ मैं रो रो के ख़ून-ए-जिगर
मले पाँव से किस के हैं दीदा-ए-तर कफ़-ए-पा पे जो रंग-ए-हिना न रहा.

उसे चाहा था मैं ने के रोक रखूँ मेरी जान भी जाए तो जाने न दूँ
किए लाख फ़रेब करोड़ फ़ुसूँ न रहा न रहा न रहा न रहा.

लगे यूँ तो हज़ारों ही तीर-ए-सितम के तड़पते रहे पड़े ख़ाक पे हम
वले नाज़ ओ करिश्मा की तेग़-ए-दो-दम लगी ऎसी के तस्मा लगा न रहा.

'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा.


न उस का भेद यारी से न अय्यारी से हाथ आया, na us ka bhed yaari se

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न उस का भेद यारी से न अय्यारी से हाथ आया
ख़ुदा आगाह है दिल की ख़बर-दारी से हाथ आया.

न हों जिन के ठिकाने होश वो मंज़िल को क्या पहुँचे
के रस्ता हाथ आया जिस की हुश्यारी से हाथ आया.

हुआ हक़ में हमारे क्यूँ सितम-गार आसमाँ इतना
कोई पूछे के ज़ालिम क्या सितम-गारी से हाथ आया.

अगर-चे माल-ए-दुन्या हाथ भी आया हरीसों के
तो देखा हम ने किस किस ज़िल्लत ओ ख़्वारी से हाथ आया.

न कर ज़ालिम दिल-आज़ारी जो दिल मंज़ूर है लेना
किसी का दिल जो हाथ आया तो दिल-दारी से हाथ आया.

अगर-चे ख़ाक-सारी कीमिया का सहल नुस्ख़ा है
व-लेकिन हाथ आया जिस के दुश्वारी से हाथ आया.

हुई हरगिज़ न तेरे चश्म के बीमार को सेहत
न जब तक ज़हर तेरे ख़त्त-ए-ज़ंगारी से हाथ आया.

कोई ये वहशी-ए-रम-दीदा तेरे हाथ आया था
पर ऐ सय्याद-वश दिल की गिरफ़्तारी से हाथ आया.

‘ज़फ़र’ जो दो जहाँ में गोहर-ए-मक़सूद था अपना
जनाब-ए-फ़ख़्र-ए-दीं की वो मदद-गारी से हाथ आया.


न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल, na do dushman hum ko itni

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न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल
तुम्हें देना ही होगा बोसा ख़म-रूई से क्या हासिल.

दिल-आज़ारी ने तेरी कर दिया बिल्कुल मुझे बे-दिल
न कर अब मेरी दिल-जूई के दिल-जूई से क्या हासिल.

न जब तक चाक हो दिल फाँस कब दिल की निकलती है
जहाँ हो काम ख़ंजर का वहाँ सूई से क्या हासिल.

बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन
किसी को क्यूँ कहें हम बद के बद-गोई से क्या हासिल.

न कर फ़िक्र-ए-ख़िज़ाब ऐ शैख़ तू पीरी में जाने दे
जवाँ होना नहीं मुमकिन सियह-रूई से क्या हासिल.

चढ़ाए आस्तीं ख़ंजर-ब-कफ़ वो यूँ जो फिरता है
उसे क्या जाने है उस अरबदा-जूई से क्या हासिल.

अबस पुम्बा न रख दाग़-ए-दिल-ए-सोज़ाँ पे तू मेरे
के अंगारे पे होगा चारा-गर रूई से क्या हासिल.

शमीम-ए-जुल्फ़ हो उस की तो हो फ़रहत मेरे दिल को
सबा होवेगा मुश्क-चीं की खुशबूई से क्या हासिल.

न होवे जब तलक इन्साँ को दिल से मेल-ए-यक-जानिब
ज़फ़र लोगों के दिखलाने को यक-सूई से क्या हासिल.


न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना, na darvesho ka khirkaa chahiye

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न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना.

किताबों में धरा है क्या बहुत लिख लिख के धो डालीं
हमारे दिल पे नक़्श-ए-कल-हज्र है तेरा फ़रमाना.

ग़नीमत जान जो दम गुजरे कैफ़ियत से गुलशन में
दिए जा साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन भर भर के पैमाना.

न देखा वो कहीं जलवा जो देखा ख़ाना-ए-दिल में
बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत सा ढूँढा बुत-ख़ाना.

कुछ ऐसा हो के जिस से मंज़िल-ए-मक़सूद को पहुँचूँ
तरीक़-ए-पारसाई होवे या हो राह-ए-रिंदाना.

ये सारी आमद-ओ-शुद है नफ़स की आमद-ओ-शुद पर
इसी तक आना जाना है न फिर जाना न फिर आना.

'ज़फ़र' वो ज़ाहिद-ए-बे-दर्द की हू-हक़ से बेहतर है
करे गर रिंद दर्द-ए-दिल से हाव-हु-ए-मस्ताना.


न दाइम ग़म है नै इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है, na daaim gam hai

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न दाइम ग़म है नै इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है
तबद्दुल याँ है हर साअत कभी यूँ है कभी वूँ है.

गिरेबाँ-चाक हूँ गाहे उड़ाता ख़ाक हूँ गाहे
लिए फिरती मुझे वहशत कभी यूँ है कभी वूँ है.

अभी हैं वो मेरे हम-दम अभी हो जाएँगे दुश्मन
नहीं इक वज़ा पर सोहबत कभी यूँ है कभी वूँ है.

जो शक्ल-ए-शीशा गिर्यां हूँ तो मिस्ल-ए-जाम ख़ंदाँ हूँ
यही है याँ की कैफ़िय्यत कभी यूँ है कभी वूँ है.

किसी वक़्त अश्क हैं जारी किसी वक़्त आह और ज़ारी
ग़रज़ हाल-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त कभी यूँ है कभी वूँ है.

कोई दिन है बहार-ए-गुल फिर आख़िर है ख़ज़ाँ बिल्कुल
चमन है मंजिल-ए-इबरत कभी यूँ है कभी वूँ है.

'ज़फ़र' इक बात पर दाइम वो होवे किस तरह क़ाइम
जो अपनी फेरता नीयत कभी यूँ है कभी वूँ है.


मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो, mhabbat chahiye baaham hame bhi

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मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो
ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो.

ग़नीमत तुम इसे समझो के इस ख़ुम-ख़ाने में यारो
नसीब इक-दम दिल-ए-ख़ुर्रम हमें भी हो तुम्हें भी हो.

दिलाओ हज़रत-ए-दिल तुम न याद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ उस का
कहीं ऐसा न हो ये सम हमें भी हो तुम्हें भी हो.

हमेशा चाहता है दिल के मिल कर कीजे मै-नोशी
मयस्सर जाम-ए-मय-ए-जम-जम हमें भी हो तुम्हें भी हो.

हम अपना इश्क़ चमकाएँ तुम अपना हुस्न चमकाओ
के हैराँ देख कर आलम हमें भी हो तुम्हें भी हो.

रहे हिर्स ओ हवा दाइम अज़ीज़ो साथ जब अपने
न क्यूँकर फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम हमें भी हो तुम्हें भी हो.

‘ज़फ़र’ से कहता है मजनूँ कहीं दर्द-ए-दिल महज़ूँ
जो ग़म से फ़ुर्सत अब इक दम हमें भी हो तुम्हें भी हो.


मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम, mar gaye ae vaah unki naaj bardari

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मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम
दिल के हाथों से पड़े कैसी गिरफ़्तारी में हम.

सब पे रौशन है हमारी सोज़िश-ए-दिल बज़्म में
शम्मा साँ जलते हैं अपनी गर्म-बाज़ारी में हम.

याद में है तेरे दम की आमद-ओ-शुद पुर-ख़याल
बे-ख़बर सब से हैं इस दम की ख़बर-दारी में हम.

जब हँसाया गर्दिश-ए-गर्दूं ने हम को शक्ल-ए-गुल
मिस्ल-ए-शबनम हैं हमेशा गिर्या ओ ज़ारी में हम.

चश्म ओ दिल बीना है अपने रोज़ ओ शब ऐ मर्दुमाँ
गरचे सोते हैं ब-ज़ाहिर पर हैं बे-दारी में हम.

दोश पर रख़्त-ए-सफ़र बाँधे है क्या ग़ुंचा सबा
देखते हैं सब को याँ जैसे के तैयारी में हम.

कब तलक बे-दीद से या रब रखें चश्म-ए-वफ़ा
लग रहे हैं आज कल तो दिल की ग़म-ख़्वारी में हम

देख कर आईना क्या कहता है यारो अब वो शोख़
माह से सद चंद बेहतर हैं अदा-दारी में हम.

ऐ ‘ज़फ़र’ लिख तू ग़ज़ल बहर ओ क़्वाफ़ी फेर कर
ख़ामा-ए-दुर-रेज से हैं अब गुहर-बारी में हम.


मैं हूँ आसी के पुर-ख़ता कुछ हूँ, mai hu aasi pur khataa

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मैं हूँ आसी के पुर-ख़ता कुछ हूँ
तेरा बंदा हूँ ऐ ख़ुदा कुछ हूँ.

जुज़्व ओ कुल को नहीं समझता मैं
दिल में थोड़ा सा जानता कुछ हूँ.

तुझ से उल्फ़त निबाहता हूँ मैं
बा-वफ़ा हूँ के बे-वफ़ा कुछ हूँ.

जब से ना-आशना हूँ मैं सब से
तब कहीं उस से आशना कुछ हूँ.

नश्शा-ए-इश्क़ ले उड़ा है मुझे
अब मज़े में उड़ा रहा कुछ हूँ.

ख़्वाब मेरा है ऐन बेदारी
मैं तो उस में भी देखता कुछ हूँ.

गरचे कुछ भी नहीं हूँ मैं लेकिन
उस पे भी कुछ न पूछो क्या कुछ हूँ.

समझे वो अपना ख़ाक-सार मुझे
ख़ाक-ए-रह हूँ के ख़ाक-पा कुछ हूँ.

चश्म-ए-अल्ताफ़ फ़ख़्र-ए-दीं से हूँ
ऐ ‘ज़फ़र’ कुछ से हो गया कुछ हूँ.


क्यूँके हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नही, kyuke humduniya mei

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क्यूँके हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं
इक सबब क्या भेद वाँ का सब का सब खुलता नहीं.

पूछता है हाल भी गर वो तो मारे शर्म के
ग़ुंचा-ए-तस्वीर के मानिंद लब खुलता नहीं.

शाहिद-ए-मक़सूद तक पहुँचेंगे क्यूँकर देखिए
बंद है बाब-ए-तमन्ना है ग़ज़ब खुलता नहीं.

बंद है जिस ख़ाना-ए-ज़िन्दाँ में दीवाना तेरा
उस का दरवाज़ा परी-रू रोज़ ओ शब खुलता नहीं.

दिल है ये ग़ुंचा नहीं है इस का उक़दा ऐ सबा
खोलने का जब तलक आवे न ढब खुलता नहीं.

इश्क़ ने जिन को किया ख़ातिर-गिरफ़्ता उन का दिल
लाख होवे गरचे सामान-ए-तरब खुलता नहीं.

किस तरह मालूम होवे उस के दिल का मुद्दआ
मुझ से बातों में 'ज़फ़र' वो ग़ुंचा-लब खुलता नहीं.


क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें अहल-ए-कीं से दूर, kyukar na khaak saar rahe

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क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें अहल-ए-कीं से दूर
देखो ज़मीं फ़लक से फ़लक है ज़मीं से दूर.

परवाना वस्ल-ए-शम्मा पे देता है अपनी जाँ
क्यूँकर रहे दिल उस के रुख़-ए-आतिशीं से दूर.

मज़मून-ए-वस्ल-व-हिज्र जो नामे में है रक़म
है हर्फ़ भी कहीं से मिले और कहीं से दूर.

गो तीर-ए-बे-गुमाँ है मेरे पास पर अभी
जाए निकल के सीना-ए-चर्ख़-ए-बरीं से दूर.

वो कौन है के जाते नहीं आप जिस के पास
लेकिन हमेशा भागते हो तुम हमीं से दूर.

हैरान हूँ के उस के मुक़ाबिल हो आईना
जो पुर-ग़ुरूर खिंचता है माह-ए-मुबीं से दूर.

याँ तक अदू का पास है उन को के बज़्म में
वो बैठते भी हैं तो मेरे हम-नशीं से दूर.

मंज़ूर हो जो दीद तुझे दिल की आँख से
पहुँचे तेरी नज़र निगह-ए-दूर-बीं से दूर.

दुन्या-ए-दूँ की दे न मोहब्बत ख़ुदा ‘ज़फ़र’
इन्साँ को फेंक दे है ये ईमान ओ दीं से दूर.