Saturday 29 February 2020

छाया दर्पण

No comments :



यह मेरा दर्पण चिर मोहित!
जीवन के गोपन रहस्य सब
इसमें होते शब्द तरंगित!

कितने स्वर्गिक स्वप्न शिखर
माया की प्रिय घाटियाँ मनोरम,
इसमें जगते इन्द्रधनुष से
कितने रंगों के प्रकाश तम!

जो कुछ होता सिद्ध जगत में
मन में जिसका उठता उपक्रम
इस जादू के दर्पण में घटना
अदृश्य हो उठतीं चित्रित!

नंगे भूखों के क्रंदन पर
हँसता इसमें निर्मम शोषण,
आदर्शों के सौध बिखरते
खड़े जीर्ण जन मन में मोहन!

झंकृत इसमें मानव आत्मा
उर उर में जो करती घोषण
इस दर्पण में युग जीवन की
छाया गहरी पड़ी कलंकित!

दीख रहा उगता इसमें
मानव भविष्य का ज्योतित आनन
मानव आत्मा जब धरती पर
विचरेगी धर ज्योति के चरण!

डूबेंगे नव मनुष्यत्व में
देश जाति गत कटु संघर्षण
पाश मुक्त होगी यह वसुधा
मानव श्रम से बन मनुजोचित!

कौन युवक युवती, मानव की
घृणित विवशताओं से पीड़ित
मानवता के हित निज जीवन
प्राण करेंगी सुख से अर्पित?

(अंतर्वाह्य दैन्य दुःखों से
अगणित तन मन हैं परितापित!)
यह माया का दर्पण उनके
गौरव से होगा स्वर्णांकित!


क्रोटन की टहनी

No comments :



कच्चे मन सा काँच पात्र जिसमें क्रोटन की टहनी
ताज़े पानी से नित भर टेबुल पर रखती बहनी!
धागों सी कुछ उसमें पतली जड़ें फूट अब आईं
निराधार पानी में लटकी देतीं सहज दिखाई!
तीन पात छींटे सुफ़ेद सोए चित्रित से जिन पर,
चौथा मुट्ठी खोल हथेली फैलाने को सुन्दर!

बहन, तुम्हारा बिरवा, मैंने कहा एक दिन हँसकर,
यों कुछ दिन निर्जल भी रह सकता है मात्र हवा पर!
किंतु चाहती जो तुम यह बढ़कर आँगन उर दे भर
तो तुम इसके मूलों को डालो मिट्टी के भीतर!

यह सच है वह किरण वरुणियों के पाता प्रिय चुंबन
पर प्रकाश के साथ चाहिए प्राणी को रज का तन!
पौधे ही क्या, मानव भी यह भू-जीवी निःसंशय,
मर्म कामना के बिरवे मिट्टी में फलते निश्वय!


नव वधू के प्रति

No comments :



दुग्ध पीत अधखिली कली सी
मधुर सुरभि का अंतस्तल
दीप शिखा सी स्वर्ण करों के
इन्द्र चाप का मुख मंडल!
शरद व्योम सी शशि मुख का
शोभित लेखा लावण्य नवल,
शिखर स्रोत सी, स्वच्छ सरल
जो जीवन में बहता कल कल!

ऐसी हो तुम, सहज बोध की
मधुर सृष्टि, संतुलित, गहन,
स्नेह चेतना सूत्र में गुँथी
सौम्य, सुघर, जैसे हिमकण!
घुटनों के बल नहीं चली तुम,
धर प्रतीति के धीर चरण,
बड़ी हुई जग के आँगन में,
थामे रहा बाँह जीवन!

आती हो तुम सौ सौ स्वागत,
दीपक बन घर की आओ,
श्री शोभा सुख स्नेह शांति की
मंगल किरणें बरसाओ!
प्रभु का आशीर्वाद तुम्हें, सेंदुर
सुहाग शाश्वत पाओ
संगच्छध्वं के पुनीत स्वर
जीवन में प्रति पग गाओ!


ताल कुल

No comments :




संध्या का गहराया झुट पुट
भीलों का सा धरे सिर मुकुट
हरित चूड़ कुकड़ू कूँ कुक्कुट

एक टाँग पर तुले, दीर्घतर
पास खड़े तुम लगते सुन्दर
नारिकेल के हे पादप वर!

चक्राकार दलों से संकुल
फैलाए तुम करतल वर्तुल,
मंद पवन के सुख से कँप कँप
देते कर मुख ताली थप थप,
धन्य तुम्हारा उच्च ताल कुल!

धूमिल नभ के सामने अड़े
हाड़ मात्र तुम प्रेत से बड़े
मुझे डराते हिला हिला सर
बीस मूड़ औ’ बाँह नचाकर!

हैं कठोर रस भरे नारिफल
मित जीवी, फैले थोड़े दल!

देवों की सी रखते काया
देते नहीं पथिक को छाया!

अगर न ऊँचे होते दादा
कब का ऊँट तुम्हें खा जाता!

एक बार पर लगता प्यारा
दूर, तरंगित क्षितिज तुम्हारा!


परिणति

No comments :



स्वप्न समान बह गया यौवन
पलकों में मँडरा क्षण!

बँध न सका जीवन बाँहों में,
अट न सका पार्थिव चाहों में,
लुक छिप प्राणों की छाहों में
व्यर्थ खो गया वह धन,
स्वप्नों का क्षण यौवन!

इन्द्र धनुष का बादल सुंदर
लीन हो गया नभ में उड़कर,
गरजा बरसा नहीं धरा पर
विद्युत् धूम मरुत घन,
हास अश्रु का यौवन!

विरह मिलन का प्रणय न भाया,
अबला उर में नहीं समाया,
भीतर बाहर ऊपर छाया
नव्य चेतना वह बन,
धूप छाँह पट यौवन!

आशा और निराशा आई
सौरभ मधु पी मति अलसाई
सत्य बनी फिर फिर परछाँई,
तड़ित चकित उत्थान पतन
अनुभव रंजित यौवन!

अब ऊषा शशि मुख, पिक कूजन,
स्मिति आतप मंजरित प्राण मन,
जीवन स्पंदन, जीवन दर्शन
इस असीम सौन्दर्य सृजन को
आत्म समर्पण!

अचिर जगत में व्याप्त चिरंतन
ज्ञान तरुण अब यौवन!


आह्वान

No comments :



बरसो हे घन!
निष्फल है यह नीरव गर्जन,
चंचल विद्युत् प्रतिभा के क्षण
बरसो उर्वर जीवन के कण
हास अश्रु की झड़ से धो दो
मेरा मनो विषाद गगन!
बरसो हे घन!

हँसू कि रोऊँ नहीं जानता,
मन कुछ माने नहीं मानता,
मैं जीवन हठ नहीं ठानता,
होती जो श्रद्धा न गहन,
बरसो हे घन!

शशि मुख प्राणित नील गगन था
भीतर से आलोकित मन था
उर का प्रति स्पंदन चेतन था,
तुम थे, यदि था विरह मिलन
बरसो हे घन!

अब भीतर संशय का तम है
बाहर मृग तृष्णा का भ्रम है
क्या यह नव जीवन उपक्रम है
होगी पुनः शिला चेतन?
बरसो हे घन!

आशा का प्लावन बन बरसो
नव सौन्दर्य रंग बन बरसो
प्राणों में प्रतीति बन हरसो
अमर चेतना बन नूतन
बरसो हे घन!


सावन

No comments :




झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के
छम छम छम गिरतीं बूँदें तरुओं से छन के।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।

ऐसे पागल बादल बरसे नहीं धरा पर,
जल फुहार बौछारें धारें गिरतीं झर झर।
आँधी हर हर करती, दल मर्मर तरु चर् चर्
दिन रजनी औ पाख बिना तारे शशि दिनकर।

पंखों से रे, फैले फैले ताड़ों के दल,
लंबी लंबी अंगुलियाँ हैं चौड़े करतल।
तड़ तड़ पड़ती धार वारि की उन पर चंचल
टप टप झरतीं कर मुख से जल बूँदें झलमल।

नाच रहे पागल हो ताली दे दे चल दल,
झूम झूम सिर नीम हिलातीं सुख से विह्वल।
हरसिंगार झरते, बेला कलि बढ़ती पल पल
हँसमुख हरियाली में खग कुल गाते मंगल?

दादुर टर टर करते, झिल्ली बजती झन झन
म्याँउ म्याँउ रे मोर, पीउ पिउ चातक के गण!
उड़ते सोन बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन,
घुमड़ घुमड़ घिर मेघ गगन में करते गर्जन।

वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख गायन।
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन।
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन।

रिमझिम रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर,
रोम सिहर उठते छूते वे भीतर अंतर!
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर,
रज के कण कण में तृण तृण की पुलकावलि भर।

पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन!
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन!


दिवा स्वप्न / स्वर्णधूलि

No comments :



मेघों की गुरु गुहा सा गगन
वाष्प बिन्दु का सिंधु समीरण!

विद्युत् नयनों को कर विस्मित
स्वर्ण रेख करती हँस अंकित
हलकी जल फुहार, तन पुलकित
स्मृतियों से स्पंदित मन
हँसते रुद्र मरुतगण!

जग, गंधर्व लोक सा सुंदर
जन विद्याधर यक्ष कि किन्नर,
चपला सुर अंगना नृत्यपर—
छाया का प्रकाश घन से छन
स्वप्न सृजन करता घन!

ऐसा छाया बादल का जग
हर लेता मन, सहज क्षण सुभग!
भाव प्रभाव उसे देते रँग!
उर में हँसते इन्द्र धनुष क्षण,
सृजन शील यह सावन!


छायाभा

No comments :



छाया प्रकाश जन जीवन का
बन जाता मधुर स्वप्न संगीत
इस घने कुहासे के भीतर
दिप जाते तारे इन्दु पीत।

देखते देखते आ जाता,
मन पा जाता,
कुछ जग के जगमग रुप नाम
रहते रहते कुछ छा जाता,
उर को भाता
जीवन सौन्दर्य अमर ललाम!

प्रिय यहाँ प्रीति
स्वप्नों में उर बाँधे रहती,
स्वर्णिम प्रतीति
हँस हँस कर सब सुख दुख सहती।

अनिवार कामना
नित अबाध अमना बहती,
चिर आराधना
विपद में बाँह सदा गहती।

जड़ रीति नीतियाँ
जो युग कथा विविध कहतीं,
भीतियाँ
जागते सोते तन मन को दहतीं।

क्या नहीं यहाँ? छाया प्रकाश की संसृति में!
नित जीवन मरण बिछुड़ते मिलते भव गति में!
ज्ञानी ध्यानी कहते, प्रकाश, शाश्वत प्रकाश,
अज्ञानी मानी छाया माया का विलास!

यदि छाया यह किसकी छाया?
आभा छाया जग क्यों आया?
मुझको लगता
मन में जगता,
यह छायाभा है अविच्छिन्न,
यह आँखमिचौनी चिर सुंदर
सुख दुख के इन्द्रधनुष रंगों की
स्वप्न सृष्टि अज्ञेय, अमर!


अतिम पैगम्बर

No comments :



दूर दूर तक केवल सिकता, मृत्यु नास्ति सूनापन!—
जहाँ ह्रिंस बर्बर अरबों का रण जर्जर था जीवन!
ऊष्मा झंझा बरसाते थे अग्नि बालुका के कण,
उस मरुस्थल में आप ज्योति निर्झर से उतरे पावन!

वर्ग जातियों में विभक्त बद्दू औ’ शेख निरंतर
रक्तधार से रँगते रहते थे रेती कट मर कर!
मद अधीर ऊँटों की गति से प्रेरित प्रिय छंदों पर
गीत गुनगुनाते थे जन निर्जन को स्वप्नों से भर!

वहाँ उच्च कुल में जन्मे तुम दीन कुरेशी के घर
बने गड़रिए, तुम्हें जान प्रभु, भेड़ नवाती थी सर!
हँस उठती थी हरित दूब मरु में प्रिय पदतल छूकर
प्रथित ख़ादिजा के स्वामी तुम बने तरुण चिर सुंदर!

छोड़ विभव घर द्वार एक दिन अति उद्वेलित अंतर
हिरा शैल पर चले गए तुम प्रभु की आज्ञा सिर धर
दिव्य प्रेरणा से निःसृत हो जहाँ ज्योति विगलित स्वर
जगी ईश वाणी क़ुरान चिर तपन पूत उर भीतर!

घेर तीन सौ साठ बुतों से काबा को, प्रति वत्सर
भेज कारवाँ, करते थे व्यापार कुरेश धनेश्वर
उस मक्का की जन्मभूमि में, निर्वासित भी होकर
किया प्रतिष्ठित फिर से तुमने अब्राहम का ईश्वर!

ज्योति शब्द विधुत् असि लेकर तुम अंतिम पैग़म्बर
ईश्वरीय जन सत्ता स्थापित करने आए भू पर!
नबी, दूरदर्शी शासक नीतिज्ञ सैन्य नायक वर
धर्म केतु, विश्वास हेतु तुम पर जन हुए निछावर!

अल्ला एक मात्र है इश्वर और रसूल मोहम्मद’
घोषित तुमने किया तड़ित असि चमका मिटा अहम्मद!
ईश्वर पर विश्वास प्रार्थना दास—संत की संपद,
शाति धाम इस्लाम जीव प्रति प्रेम स्वर्ग जीवन नद।

जाति व्यर्थ हैं सब समान हैं मनुज, ईश के अनुचर,
अविश्वास औ’ वर्ग भेद से है जिहाद श्रेयस्कर!
दुर्बल मानव, पर रहीम ईश्वर चिर करुणा सागर,
ईश्वरीय एकता चाहता है इस्लाम धरा पर!

प्रकृति जीव ही को जीवन की मान इकाई निश्वित
प्राणों का विश्वास पंथ कर तुमने पभु का निर्मित।
व्यक्ति चेतना के बदले कर जाति चेतना विकसित
जीवन सुख का स्वर्ग किया अंतरतम नभ में स्थापित।

आत्मा का विश्लेषण कर या दर्शन का संश्लेषण,
भाव बुद्धि के सोपानों मे बिलमाए न हृदय मन।
कर्म प्रेरणा स्फुरित शब्द से जन मन का कर शासन
ऊर्ध्व गमन के बदले समतल गमन बताया साधन!

स्वर्ग दूत जबरील तुम्हारा बन मानस पथ दर्शक
तुम्हें सुझाता रहा मार्ग जन मंगल का निष्कंटक।
तर्कों वादों और बुतों के दासों को, जन रक्षक
प्राणों का जीवन पथ तुमने दिखलाया आकर्षक!

एक रात में मृत मरु को कर तुमने जीवन चेतन
पृथ्वी को ही प्रभु के शब्दों को कर दिया समर्पण।
‘मैं भी अन्य जनों सा हूँ!’ कह रह सबसे साधारण
पावन तुम कर गए धरा को, धर्म तंत्र कर रोपण।


भावोन्मेष

No comments :



पुष्प वृष्टि हो,
नव जीवन सौन्दर्य सृष्टि हो,
जो प्रकाश वर्षिणी दृष्टि हो!

लहरों पर लोटें नव लहरें
लाड़ प्यार की पागलपन की
नव जीवन की, नव यौवन की!

मोती की फुहार सी छहरें
प्राणों के सुख की, भावों की,
सहज सुरुचि की चित चावों की!

इन्द्रधनुष सी आभा फहरे
स्वप्नों की, सौन्दर्य सृजन की,
आशा की, नव प्रणय मिलन की!
लहरों पर लोटें नव लहरें!

कूक उठे प्राणों में कोयल!
नव्य मंजरित हो जन जीवन,
नवल पल्लवित जग के दिशि क्षण,
नव कुसुमित मानव के तन मन!

बहे मलय साँसों में चंचल!
जीवन के बंधन खुल जाएँ
मनुजों के तन मन धुल जाएँ,
जन आदर्शों पर तुल जाएँ,
खिले धरा पर जीवन शतदल
कूक उठे फिर कोयल!

युग प्रभात हो अभिनव!
सत्य निखिल बन जाय कल्पना,
मिथ्या जग की मिटे जल्पना,
कला धरा पर रचे अल्पना,
रुके युगों का जन रव!

प्रीति प्रतीति भरे हों अंतर
विनय स्नेह सहृदयता के सर,
जीवन स्वप्नों से दृग सुन्दर,
सब कुछ हो फिर संभव।

जाति पाँति की कड़ियाँ टूटें
मोह द्रोह मद मत्सर छूटें
जीवन के नव निर्झर फूटें
वैभव बने पराभव
युग प्रभात हो अभिनव!


नरक में स्वर्ग

No comments :



(१)
गत युग के जन पशु जीवन का जीता खँडहर
वह छोटा सा राज्य नरक था इस पृथ्वी पर।
कीड़ों से रेंगते अपाहिज थे नारी नर
मूल्य नहीं था जीवन का कानी कौड़ी भर!

उसे देख युग युग का मन कर उठता क्रंदन
हाय विधाता, यह मानव जीवन संघर्षण!!
जग के चिर परिताप वहाँ करते थे कटु रण,
वह नृशंसता, द्वेष कलह का था जड़ प्रांगण।

झाड़ फूस के भग्न घरोंदों में लहराकर
हरी भरी गाँवों की धरती उठ ज्यो ऊपर।
राज भवन के उच्च शिखर से उठा शास्ति कर
इंगित करती थी अलक्ष्य की ओर निरंतर।

उस अलक्ष्य में युग भविष्य जो था अंतर्हित
वह यथार्थ था जितना मन में उतना कल्पित।
बाहर से थी राय प्रजा हो रही संगठित,
भीतर से नव मनुष्यत्व गोपन में विकसित।
(२)
राज महल के पास एक मिट्टी के कच्चे घर में
रहती थी मालिन की लड़की क्षुधा विदित पुर भर में।
मौन कुईं सी खिली गाँव के ज्यों निशीथ पोखर में
वह शशि मुखी सुधा की थी सहचरी हर्ग्य अंबर में।

नव युवती थी फूलों के मृदु स्पर्शों से पोषित तन,
सहज बोध के सलज वृत्त पर विकसित सौरभ का मन।
मुग्ध कली वह जग मादन वसंत था उसका यौवन,
भावों की पंखड़ियों पर रंजित निसर्ग सम्मोहन।

उसके आँगन में आ ऊषा स्वर्ण हास बरसाती,
राजकुमारी सुधा द्वार पर खड़ी नित्य मुसकाती
दोनों सखियाँ उपवन में जा फूलों में मिल जातीं
इन्द्र चाप के रंगों में ज्यों इन्दु रश्मि रिल जातीं।

कोमल हृदय सुधाका था चिर विरह गरल से तापित
जननि जनक की इच्छा से थी प्रणय भावना शासित।
फूलों का तन मधुर क्षुधा का मधुप प्रीति से शोषित,
राजकुमार अजित की थी वह स्वप्न संगिनी अविजित।

पंकजिनी थी क्षुधा, पंक में खिली दैन्य के निश्वय,
स्वर्ण किरण थी सुधा धरा की रज पर उतरी सहृदय।
दोनों के प्राणों का परिणय था जन के हित सुखमय,
स्वर्ग धरा का मधुर मिलन हो ज्यों स्रष्टा का आशय।

दोनों सखियाँ मिल गोपन में करतीं मर्म निवेदन,
दोनों की दयनीय दशा बन गई स्नेह दृढ़ बंधन!
जीवन के स्वप्नों का जीवन की स्थितियों से आ रण,
तन मन की था क्षुधा बढ़ाता ईंधन बन नव यौवन!

कितने ऐसे युवति युवक हैं आज नहीं जो कुंठित,
जिनकी आशा अभिलाषा सुख स्वप्न नहीं भू लुंठित।
भीतर बाहर में विरोध जब बढ़ता है अनपेक्षित
तब युग का संचरण प्रगति देता जीवन को निश्चित!
(३)
राजभवन हे राजभवन, जन मन के मोहन,
युग युग के इतिहास रहे तुम भू के जीवन!
संस्कृति कला विभव के स्वप्नों से तुम शोभन
पृथ्वी पर थे स्वर्गिक शोभा के नंदनवन!

मदिर लोचनों से गवाक्ष थे मुग्ध कुवलयित,
मधुर नूपुरों की कलध्वनि से दिशि पल गुंजित।
नव वसंत के तुम शाश्वत विलास थे कुसुमित
भू मंडल की विद्या के प्रकाश से ज्योतित।

हाय, आज किन तापों शापों से तुम पीड़ित
विस्फोटक बन गए धरा के उर के निन्दित।
जन गण के जीवन से तुम न रहे संबंधित
अहम्मभयत्ता, धन मद, मति जड़ता में मज्जित।

अब भी चाहो पा सकते तुम जन मन पूजन
जन मंगल के लिए करो जो विभव समर्पण!
जन सेवा व्रत के चिर ब्रती रहो तुम दृढ़पण,
संस्कृति ज्ञान कला का करना सीखो पोषण!

तंत्र मात्र से हो सकते न मनुज परिचालित
उनके पीछे जब तक हो न चेतना विकसित।
प्रजा तंत्र के साथ राज्य रह सकते जीवित
जन जीवन विकास के नियमों से अनुशासित!
(४)
इन्क़लाब के तुमल सिन्धु-सा एक रोज हो उठा तरंगित
वह छोटा सा राज्य क्रुद्ध जनता के आवेशों से नादित।
थी अग्रणी क्षुधा के कर में रक्त ध्वजा ज्वाला सी कंपित,
काल पड़ा था, क्षुब्ध प्रजा को था लगान भरना अस्वीकृत।

बल प्रयोग था किया राज्य ने जनमत का कर प्रजा संगठन
राजभवन को घेर अड़ी थी, सत्वों के हित देने जीवन।
हाथ क्षुधा का पकड़े था श्रम उसका प्रिय साथी, प्रेमी जन
द्वेष शिखा का शलभ अजित था देख रहा उनको सरोष मन।

देख रही थी क्षुधा खोल किंचित् अंतःपुर का वातायन
उसे विदित था सोदर के मन में जो था चल रहा इधर रण।
दोनों सखियों के नयनों ने मिलकर मौन किया संभाषण
दोनों के उर में था आकुल स्पंदन आँखों में आँसू बन!

हार गए थे भूप मनाकर, बात प्रजा ने एक न मानी
सह सकती थी, सच है, जनता और न शासन की मनमानी।
छोड़ भार युवराज पर सकल थे निश्चिंत नृपति अभिमानी
कुपित अजित ने जन विद्रोह दमन करने की मन में ठानी।

पा उसका संकेत सैनिकों ने, जो रहे सशस्त्र घेर कर
अग्नि वृष्टि कर दी जनगण थे मृत्यु कांड के लिए न तत्पर।
प्रबल प्रभंजन से सगर्व ज्यों आलोड़ित हो उठता सागर
क्रंदन गर्जन की हिल्लोलें उठने गिरने लगीं धरा पर!

खिन्न धरित्री पीती थी निज रस से पोषित मानव शोणित
पृष्ठ द्वार से निकल सुधा हो गई भीड़ में उधर तिरोहित।
लाल ध्वजा को लक्ष्य बना निज इधर अजित ने हो उत्तेजित
मृत्यु व्याल दी उगल क्षुधा पर प्रीति बन गई द्वेष की तड़ित।

‘हाय, सुधा! हा, राजकुमारी!’ दशों दिशा हो उठी ज्यों ध्वनित,
‘सुधे, सखी, प्राणों की प्यारी! वज्र गिरा यह हम पर निश्चित!’
‘ओ जन मानस राज हंसिनी तुमने प्राण दिए जनगण हित,
वैभव की तज तेज हाय तुम धरा धूलि पर आज चिर शयित!!!

हलचल क्रंदन कोलाहल से राजमहल हिल उठा अचानक!
देखा सबने क्षुधा अंक में राजकुमारी सोई अपलक!
अश्रु अजस्र क्षुधा के उसको पहनाते थे स्नेह विजय स्रक्,
उसने ली थी छीन सखी से रक्त जिह्वध्वज मृत्यु भयानक!

रोते थे नरेश विस्मृत से, रानी पास खड़ी थी मूर्छित,
किंकर्तव्य विमूढ़ खड़ा था अजित अवाक् शून्य जीवन्मृत।
नत मस्तक थे नृप, घुटनों बल प्रजा प्रणत थी उभय पराजित,
प्रीति प्रताड़ित हृदय सुधा का था निष्पंद प्रजा को अर्पित।

देख अजित को आत्मघात के हित उद्यत विदीर्ण दुखकातर
झपट क्षुधा से छीन लिया द्रुत शस्त्र हाथ से कह धिक् कायर!
साश्रु नयन उस क्षुब्ध युवक के मुख से निकले सुधा सिक्त स्वर
‘सुधा आज से बहिन क्षुधा तुम, अजित विजित, जनगण का अनुचर!

कथा मात्र है यह कल्पित उपचेतन से अतिरंजित,
कहीं नहीं है राजकुमारी सुधा धरा पर जीवित।
मनुजोचित विधि से न सभ्यता आज हो रही निर्मित,
संस्कृत रे हम नाम मात्र को, विजयी हममें प्राकृत।

आज सुधा है, शोषित श्रम है, नग्न प्रजा तम पीड़ित,
प्रीति रहित है अजित काम, कामना न किंचित् विकसित।
अभी नहीं चेतन मानव से भू जीवन मर्यादित,
अभी प्रकृति की तमस शक्ति से मनुज नियति अनुशासित।


चौथी भूख

No comments :



भूखे भजन न होई गुपाला,
यह कबीर के पद की टेक,

देह की है भूख एक!—

कामिनी की चाह, मन्मथ दाह,
तन को हैं तपाते
औ’ लुभाते विषय भोग अनेक
चाहते ऐश्वर्य सुख जन
चाहते स्त्री पुत्र औ’ धन,
चाहते चिर प्रणय का अभिषेक!
देह की है भूख एक!

दूसरी रे भूख मन की!

चाहता मन आत्म गौरव
चाहता मन कीर्ति सौरभ
ज्ञान मंथन नीति दर्शन,
मान पद अधिकार पूजन!
मन कला विज्ञान द्वारा
खोलता नित ग्रंथियाँ जीवन मरण की!
दूसरी यह भूख मन की!

तीसरी रे भूख आत्मा की गहन!

इंद्रियों की देह से ज्यों है परे मन
मनो जग से परे त्यों आत्मा चिरंतन
जहाँ मुक्ति विराजती
औ’ डूब जाता हृदय क्रंदन!

वहाँ सत् का वास रहता,
चहाँ चित का लास रहता,
वहाँ चिर उल्लास रहता
यह बताता योग दर्शन!

किंतु ऊपर हो कि भीतर
मनो गोचर या अगोचर
क्या नहीं कोई कहीं ऐसा अमृत धन
जो धरा पर बरस भरदे भव्य जीवन?
जाति वर्गों से निखर जन
अमर प्रीति प्रतीति में बँध
पुण्य जीवन करें यापन,
औ’ धरा हो ज्योति पावन!


क्षण जीवी

No comments :



रक्त के प्यासे, रक्त के प्यासे!
सत्य छीनते ये अबला से
बच्चों को मारते, बला से!
रक्त के प्यासे!

भूत प्रेत ये मनो भूमि के
सदियों से पाले पोसे
अँधियाली लालसा गुहा में
अंध रूढियों के शोषे!

मरने और मारने आए
मिटते नहीं एक दो से
ये विनाश के सृजन दूत हैं
इनको कोई क्या कोसे!
रक्त के प्यासे!

यह जड़त्व है मन की रज का
जो कि मृत्यु से ही जाता
धीरे धीरे धीरे जीवन
इसको कहीं बदल पाता!

ऊर्ध्व मनुज ये नहीं, अधोमुख,
उलटे जिनके जीवन मान,
अंधकार खींचता इन्हें है
गाता रुधिर प्रलय के गान!

रक्त के प्यासे!
हृदय नहीं ये देह लूटते हैं अबला से,
जाति पाँति से रहित दुधमुहे
बच्चों को मारते, बला से!
रक्त के प्यासे!

ऊर्ध्व मनुज बनना महान है
वे प्रकाश की है संतान
ऊर्ध्व मनुज बनना महान है
करना उन्हें आत्म निर्माण!
उन्हें अनादि अनंत सत्य का
करना है आदान प्रदान
धर प्रतीति ज्वाला हाथों में
करना जीवन का सम्मान!
उन्हें प्रेम को सत्य, ज्योति को
शलभ समर्पित करने प्राण,
धुल जावें धरती के धब्बे
इनके प्राणों की बरसा से!
सत्य के प्यासे!


जाति मन

No comments :



सौ सौ बाँहें लड़ती हैं, तुम नहीं लड़ रहे,
सौ सौ देहें कटती हैं, तुम नहीं कट रहे,
हे चिर मृत, चिर जीवित भू जन!

अंध रूढिएँ अड़ती हैं, तुम नहीं अड़ रहे,
सूखी टहनी छँटती हैं, तुम नहीं छँट रहे,
जीवन्मृत नव जीवित भू जन!

जाने से पहिले ही तुम आगए यहाँ
इस स्वर्ण धरा पर,
मरने से पहिले तुमने नव जन्म ले लिया,
धन्य तुम्हें हे भावी के नारी नर!

काट रहे तुम अंधकार को,
छाँट रहे मृत आदर्शों को
नव्य चेतना में डुबा रहे,
युग मानव के संघर्षों को!

मुक्त कर रहे भूत योनि से
भावी के स्वर्णिम वर्षों को
हाँक रहे तुम जीवन रथ, नव मानव बन,
पथ में बरसा, शत आशाओं को,
शत हर्षों को!

सौ सौ बाँहें सौ सौ देहें नहीं कट रहीं,
बलि के अज, तुम आज कट रहे,
युग युग के वैषम्य, जाति मन,
एवमस्तु बहिरंतर जो तुम
आज छँट रहे!


काले बादल

No comments :



सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!

काले बादल जाति द्वेष के,
काले बादल विश्‍व क्‍लेश के,
काले बादल उठते पथ पर
नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!
सुनता आया हूँ, है देखा,
काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!

आज दिशा हैं घोर अँधेरी
नभ में गरज रही रण भेरी,
चमक रही चपला क्षण-क्षण पर
झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर!
नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।

काले बादल, काले बादल,
मन भय से हो उठता चंचल!
कौन हृदय में कहता पलपल
मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!

मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,
पर अनीति से प्रीति नहीं है,
यह मनुजोचित रीति नहीं है,
जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!

देश जातियों का कब होगा,
नव मानवता में रे एका,
काले बादल में कल की,
सोने की रेखा!