Wednesday 26 September 2018

ट्रेन और मे

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ट्रेन चल रही थी
नदी नाले और झाड़ियो से आगे बढ़ रही थी
मैं खिड़की वाली सीट पे बैठी
आँखों से न जाने क्या टटोल रही थी

जाना था दिल्ली, कुछ जरुरी काम सा था
रस्ते मे पड़ता था उसका शहर, नाम कुछ आम सा था

यु तो उसे भूल ही गई हु और जिंदगी आगे बढ़ रही थी
लेकिन आज फिर ट्रेन उसके शहर से गुजर रही थी

था तो एक मिटटी धूल भरा शहर, मगर खास था
क्योंकि वहा किसी अपने होने का अहसास था

बहुत सुकून था कभी किसी इस भीड़भाड़ भरे शहर मे, क्योंकि तू जो था
अब तो बसा बसाया शहर भी वीरान जंगल सा लगता है क्योंकि तू जो ना था

गाड़ी शहर गाव , नदी नहर से गुजर रही थी
ऐसा लगता तो था के मै मंज़िल की और बढ़ रही थी

शहर एक और आने को तैयार था
कैसे कहु के ये उसका शहर था

उसका शहर आने को था और गाडी शहर से बाहर रुक गई
मानो कह रही थी मुझे के ,तेरा अब यहाँ कोई नहीं

मे रुकी हुई ट्रेन की खिड़की से बाहर लगी झाड़िया, गालिया, घर देख रही
जैसे अपनी रुकी जिंदगी को , उन मै
ढूंढ़ रही थी

ये गालिया है वो ही जहा कभी वो बाइक चला करती
के आगे तुम और पीछे बस मे ही हुआ करती थी

इतने मे ट्रेन चल पड़ी
मेरी आँखे घडी की सूईओ पे जम गई

फिर आया वो स्टेशन के जिसका नाम गाजियाबाद था
के कभी वो शहर तेरे मेरे प्यार से आबाद था

गाड़ी प्लेटफॉर्म पर रुकी हुई थी
मै नाउम्मीदी या उम्मीद तुझको ढूंढ रही थी

कभी वो सुन लेते थे धड़कन मेरी मीलो दूर से भी
और अब उनके शहर मे आकर भी हु मे अजनबी

कभी इस शहर मे वो भी हुआ करता था
ऐसा नहीं के वो अब नहीं, वो है मगर मेरा नहीं है
वो है मगर मेरा नहीं


गाडी चल पड़ी थी
जिंदगी भी आगे अब चलने लगी थी
यादो तो अब भी आ रही थी उसकी
मगर फिर भी मे धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी
मे धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी

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