Saturday 27 May 2017

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा by meer taqi meer

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ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा 

दिल न पहुँचा गोशा-ए-दामन तलक
क़तरा-ए-ख़ूँ था मिज़्हा  पे जम रहा

जामा-ए-अहराम-ए-जाहिद पर न जा
था हरम में लेक ना-महरम रहा

ज़ुल्फ़ खोले तू जो टुक आया नज़र
उम्र भर याँ काम-ए-दिल बरहम रहा

उसके लब से तल्ख़ हम सुनते रहे
अपने हक़ में आब-ए-हैवाँ सम रहा

हुस्न था तेरा बहुत आलम फरेब
खत के आने पर भी इक आलम रहा

मेरे रोने की हकीकत जिस में थी
एक मुद्दत तक वो क़ाग़ज़ नम रहा 

सुबह पीरी शाम होने आई `मीर'
तू न जीता, याँ बहुत दिन कम रहा


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