Saturday 29 February 2020

तुम मेरे मन के मानव,

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तुम मेरे मन के मानव,
मेरे गानों के गाने;
मेरे मानस के स्पन्दन,
प्राणों के चिर पहचाने!
मेरे विमुग्ध-नयनों की
तुम कान्त-कनी हो उज्ज्वल;
सुख के स्मिति की मृदु-रेखा,
करुणा के आँसू कोमल!
सीखा तुमसे फूलों ने
मुख देख मन्द मुसकाना
तारों ने सजल-नयन हो
करुणा-किरणें बरसाना।
सीखा हँसमुख लहरों ने
आपस में मिल खो जाना,
अलि ने जीवन का मधु पी
मृदु राग प्रणय के गाना।
पृथ्वी की प्रिय तारावलि!
जग के वसन्त के वैभव!
तुम सहज सत्य, सुन्दर हो,
चिर आदि और चिर अभिनव।
मेरे मन के मधुवन में
सुखमा से शिशु! मुसकाओ,
नव नव साँसों का सौरभ
नव मुख का सुख बरसाओ।
मैं नव नव उर का मधु पी,
नित नव ध्वनियों में गाऊँ,
प्राणों के पंख डुबाकर
जीवन-मधु में घुल जाऊँ।

रचनाकाल: जनवरी’ १९३२


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