Saturday 29 February 2020

छायाभा

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छाया प्रकाश जन जीवन का
बन जाता मधुर स्वप्न संगीत
इस घने कुहासे के भीतर
दिप जाते तारे इन्दु पीत।

देखते देखते आ जाता,
मन पा जाता,
कुछ जग के जगमग रुप नाम
रहते रहते कुछ छा जाता,
उर को भाता
जीवन सौन्दर्य अमर ललाम!

प्रिय यहाँ प्रीति
स्वप्नों में उर बाँधे रहती,
स्वर्णिम प्रतीति
हँस हँस कर सब सुख दुख सहती।

अनिवार कामना
नित अबाध अमना बहती,
चिर आराधना
विपद में बाँह सदा गहती।

जड़ रीति नीतियाँ
जो युग कथा विविध कहतीं,
भीतियाँ
जागते सोते तन मन को दहतीं।

क्या नहीं यहाँ? छाया प्रकाश की संसृति में!
नित जीवन मरण बिछुड़ते मिलते भव गति में!
ज्ञानी ध्यानी कहते, प्रकाश, शाश्वत प्रकाश,
अज्ञानी मानी छाया माया का विलास!

यदि छाया यह किसकी छाया?
आभा छाया जग क्यों आया?
मुझको लगता
मन में जगता,
यह छायाभा है अविच्छिन्न,
यह आँखमिचौनी चिर सुंदर
सुख दुख के इन्द्रधनुष रंगों की
स्वप्न सृष्टि अज्ञेय, अमर!


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