Tuesday 11 February 2020
अफ़सोस मूढ़ मन तू मुद्दत से सो रहा है,
अफ़सोस मूढ़ मन तू मुद्दत से सो रहा है,
सोचा न यह कि घर में अँधेरा हो रहा है।
चौरासी लाख मंज़िल तय करके मुश्किलों से,
जिस घर को तूने ढूँढा उस घर को खो रहा है।
घट में है ज्ञान गंगा उसमे न मार गोता,
तृष्णा के गंदे जल में इस तन को धो रहा है।
अनमोल स्वांस तेरी पापों में जा रही है,
रत्नों को छोड़ कंकर और काँच ढो रहा है।
संसार सिन्धु से तू क्या ख़ाक पर होगा,
विषयों के ‘बिन्दु’ में जब कस्ती डुबो रहा है।
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अफ़सोस मूढ़ मन तू
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