Thursday, 29 November 2018
वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना
वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना
किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना.
जो भी चाहे वो बना ले उसे अपने जैसा
किसी आईने का होता नहीं चेहरा अपना.
ख़ुद से मिलने का चलन आम नहीं है वरना
अपने अंदर ही छुपा होता है रस्ता अपना.
यूँ भी होता है वो ख़ूबी जो है हम से मंसूब
उस के होने में नहीं होता इरादा अपना.
ख़त के आख़िर में सभी यूँ ही रक़म करते हैं
उस ने रसमन ही लिखा होगा तुम्हारा अपना.
किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना.
जो भी चाहे वो बना ले उसे अपने जैसा
किसी आईने का होता नहीं चेहरा अपना.
ख़ुद से मिलने का चलन आम नहीं है वरना
अपने अंदर ही छुपा होता है रस्ता अपना.
यूँ भी होता है वो ख़ूबी जो है हम से मंसूब
उस के होने में नहीं होता इरादा अपना.
ख़त के आख़िर में सभी यूँ ही रक़म करते हैं
उस ने रसमन ही लिखा होगा तुम्हारा अपना.
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