Friday, 17 January 2020
ग़म खाने में बोदा दिले-नाकाम बहुत हैgam khane mei boda dil
ग़म खाने में बोदा दिले-नाकाम बहुत है
यह रंज कि कम है मए-गुलफ़ाम बहुत है
कहते हुए साक़ी से हया आती है वरना
है यूं कि मुझे दुरद-ए-तह-ए-जाम बहुत है
न तीर कमां में है, न सैयाद कमीं में
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है
क्या ज़ुहद को मानूं कि न हो गरचे रियाई
पादाश-ए-अ़मल की तमअ़-ए-ख़ाम बहुत है
हैं अहल-ए-ख़िरद कि किस रविश-ए-ख़ास पे नाज़ां
पा-बस्तगी-ए-रस्म-ओ-रह-ए `आम बहुत है
ज़मज़म ही पे छोड़ो, मुझे क्या तौफ़-ए-हरम से
आलूदा-ब-मै जामा-ए-अहराम बहुत है
है क़हर गर अब भी न बने बात कि उन को
इनकार नहीं, और मुझे इब्राम बहुत है
ख़ूं हो के जिगर आंख से टपका नहीं, ऐ मरग
रहने दे मुझे यां, कि अभी काम बहुत है
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शायर तो वह अच्छा है पर बदनाम बहुत है
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