Monday, 31 December 2018
गिर पड़े दाँत हुए मू-ए-सर ऐ यार सफ़ेद, gir pade daant huye
गिर पड़े दाँत हुए मू-ए-सर ऐ यार सफ़ेद
क्यूँ न हो ख़ौफ़-ए-अजल से ये सियह-कार सफ़ेद
दो क़दम फ़र्त-ए-नज़ाकत से नहीं चल सकता
रंग हो जाता है उस का दम-ए-रफ़्तार सफ़ेद
उस मसीहा की जो आँखें हुईं गुल-ज़ार में सूर्ख़
हो गई ख़ौफ़ से बस नर्गिस-ए-बीमार सफ़ेद
गुल-ए-नसरीं को नहीं जोश चमन में बुलबुल
है नज़ाकत के सबब चेहरा-ए-गुल-ज़ार सफ़ेद
घर मेरे शब को जो वो रश्क-ए-क़मर आ निकला
हो गए परतव-ए-रुख़ से दर ओ दीवार सफ़ेद
लब ओ दंदाँ के तसव्वुर में जो रोया मैं कभी
अश्क दो-चार बहे सुर्ख़ तो दो-चार सफ़ेद
हुई सर-सब्ज़ जो सोहबत में 'अमानत' की ग़ज़ल
रंग दुश्मन का हुआ रश्क से इक बार सफ़ेद
दिखलाए ख़ुदा उस सितम-ईजाद की सूरत, dikhlaaye khud us sitam izaad ki soorat
दिखलाए ख़ुदा उस सितम-ईजाद की सूरत
इस्तादा हैं हम बाग़ में शमशाद की सूरत
याद आती है बुलबुल पे जो बे-दाद की सूरत
रो देता हूँ मैं देख के सय्याद की सूरत
आज़ाद तेरे ऐ गुल-ए-तर बाग़-ए-जहाँ में
बे-जाह-ओ-हशम शाद हैं शमशाद की सूरत
जो गेसू-ए-जानाँ में फँसा फिर न छुटा वो
हैं क़ैद में फिर ख़ूब है मीआद की सूरत
खींचेंगे मेरे आईना रुख़सार की तस्वीर
देखे तो कोई मानी ओ बहज़ाद की सूरत
गाली के सिवा हाथ भी चलता है अब उन का
हर रोज़ नई होती है बे-दाद की सूरत
किस तरह 'अमानत' न रहूँ ग़म से मैं 'दिल-गीर'
आँखों में फिरा करती है उस्ताद की सूरत
भूला हूँ मैं आलम को सर-शार इसे कहते हैं, bhula hu mai aalam ko
भूला हूँ मैं आलम को सर-शार इसे कहते हैं
मस्ती में नहीं ग़ाफ़िल हुश्यार इसे कहते हैं
गेसू इसे कहते हैं रुख़सार इसे कहते हैं
सुम्बुल इसे कहते हैं गुल-ज़ार इसे कहते हैं
इक रिश्ता-ए-उल्फ़त में गर्दन है हज़ारों की
तस्बीह इसे कहते हैं ज़ुन्नार इसे कहते हैं
महशर का किया वादा याँ शक्ल न दिखलाई
इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं
टकराता हूँ सर अपना क्या क्या दर-ए-जानाँ से
जुम्बिश भी नहीं करती दीवार इसे कहते हैं
दिल ने शब-ए-फ़ुर्क़त में क्या साथ दिया मेरा
मोनिस इसे कहते हैं ग़म-ख़्वार इसे कहते हैं
ख़ामोश 'अमानत' है कुछ उफ़ भी नहीं करता
क्या क्या नहीं ऐ प्यारे अग़्यार इसे कहते हैं
बानी-ए-जोर-ओ-जफ़ा हैं सितम-ईजाद हैं सब, baani e jor o jafaa hai
बानी-ए-जोर-ओ-जफ़ा हैं सितम-ईजाद हैं सब
राहत-ए-जाँ कोई दिल-बर नहीं जल्लाद हैं सब
कभी तूबा तेरे क़ामत से न होगा बाला
बातें कहने की ये ऐ ग़ैरत-ए-शमशाद हैं सब
मिज़ा ओ अबरू ओ चश्म ओ निगह ओ ग़म्ज़ा ओ नाज़
हक़ जो पूछो तो मेरी जान के जल्लाद हैं सब
सर्व को देख के कहता है दिल-बस्ता-ए-ज़ुल्फ़
हम गिरफ़्तार हैं इस बाग़ में आज़ाद हैं सब
कुछ है बे-हुदा ओ नाक़िस तो 'अमानत' का कलाम
यूँ तो कहने को फन-ए-शेर में उस्ताद हैं सब
आग़ोश में जो जलवा-गर इक नाज़नीं हुआ, Aagosh mein jo jalva gar ik
आग़ोश में जो जलवा-गर इक नाज़नीं हुआ
अंगुश्तरी बना मेरा तन वो नगीं हुआ
रौनक़-फ़ज़ा लहद पे जो वो मह-जबीं हुआ
गुम्बद हमारी क़ब्र का चर्ख़-ए-बरीं हुआ
कंदा जहाँ में कोई न ऐसा नगीं हुआ
जैसा के तेरा नाम मेरे दिल-नशीं हुआ
रौशन हुआ ये मुझ पे के फ़ानूस में है शमा
हाथ उस का जलवा-गर जो तह-ए-आस्तीं हुआ
रखता है ख़ाक पर वो क़दम जब के नाज़ से
कहता है आसमाँ न क्यूँ मैं ज़मीं हुआ
रौशन शबाब में जो हुई शम्मा-ए-रु-ए-यार
दूद-ए-चराग़ हुस्न-ए-ख़त-ए-अम्बरीं हुआ
या रब गिरा उदू पे अमानत के तू वो बर्क़
दो टुकड़े जिस से शहपर-ए-रूहुल-अमीं हुआ
दरमियाँ यों न फ़ासिले होते
काश ऐसे भी सिलसिले होते
हमने तो मुस्करा के देखा था
काश वोह भी ज़रा खिले होते
ज़िन्दगी तो फ़रेब देती है
मौत से काश हम मिले होते
हम ज़ुबाँ पर न लाते बात उनकी
लब हमारे अगर सिले होते
अपनी हम कहते उनकी भी सुनते
शिकवे रहते न फिर गिले होते
काश अपने उदास आँगन में
फूल उम्मीद के खिले होते
रात का यह सफर हसीं होता
"चाँद", तारों के काफ़िले होते
ग़म गुसारों की बात करते हो ,
किन सहारों की बात करते हो
हम सभी मौसमों से गुज़रे हैं
क्यों बहारों की बात करते हो
जिनकी बुनियाद का वजूद नहीं
उन दीवारों की बात करते हो
तुमसे होगी नहीं मसीहाई
क्यों बीमारों की बात करते हो
जिनकी ख़ातिर हुए हो तुम रुस्वा
कैसे यारों की बात करते हो
गुलसिताँ आग के हवाले है
किन चिनारों की बात करते हो
एक जुगनू नज़र नहीं आता
तुम सितारों की बात करते हो
मेरी कश्ती इन्हीं में डूबी है
तुम किनारों की बात करते हो
चाँद पर भी हमें तो ख़ाक़ मिली
तुम सितारों की बात करते हो।
मेरे हाथों की लकीरों में मोहब्बत लिख दे
मेरे क़ातिब मेरी तक़दीर में रहमत लिख दे
वो जो मेरा है वही रूठ गया है मुझसे
उसके दिल में तू मेरे वास्ते उल्फ़त लिख दे
वो अदावत की क़िताबों को लिए बैठे हैं
उन क़िताबों में बस इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत लिख दे
मेरी जेबों में खनक कर भी सकूँ देते हैं
खोटे सिक्कों के मुक़द्दर में तू बरक़त लिख दे
शम्अ जलते ही मैं परवाने-सा जल जाता हूँ
तू मेरी राख़ को चाहे तो शहादत लिख दे
चाँद तारों की तरह चमके मुक़द्दर उनका
ये दुआ है मेरी उनके लिए शोहरत लिख दे
नाज़बरदारियाँ नहीं होतीं
हमसे मक़्क़ारियाँ नहीं होतीं
दिल में जो है वही ज़बान पे है
हमसे अय्यारियाँ नहीं होतीं
कम न होती ज़मीं ये जन्नत से
गर ये बदकारियाँ नहीं होतीं
इतनी पी है कि होश हैं गुम-सुम
अब ये मय-ख़्वारियाँ नहीं होतीं
अब यहाँ बुज़दिलों के डेरे हैं
अब वो सरदारियाँ नहीं होती
पहले होती थीं कुर्बतें दिल में
अब रवादारियाँ नहीं होती
जिन रुख़ों पर सजी हो शर्म-ओ-हया
उनपे फुलकारियाँ नहीं होती
'चाँद'! जलते चिनार देखे हैं
मुझसे गुलकारियाँ नहीं होती।
वो एक चाँद-सा चेहरा जो मेरे ध्यान में है
उसी के साये की हलचल मेरे मकान में है
मैं जिसकी याद में खोया हुआ-सा रहता हूँ
वो मेरी रूह में है और मेरी जान में है
वो जिसकी रौशनी से क़ायनात है जगमग
उसी के नूर का चर्चा तो कुल जहान में है
तुझे तलाश है जिस शय की मेरे पास कहाँ
तू जा के देख वो बाज़ार में दुकान में है
चला के देख ले बेशक तू मेरे सीने पर
वो तीर आख़िरी जो भी तेरी कमान में है
ये ज़िन्दगी है इसे ‘चाँद’, सहल मत समझो
हरेक साँस यहाँ गहरे इम्तिहान में है।
किसी के प्यार के क़ाबिल नहीं है
मुहब्बत के लिए ये दिल नहीं है
बड़ा ही ग़मज़दा बे आसरा है
जे कुछ भी हो मगर बुज़दिल नहीं है
मुहब्बत में बला की चोट खाई
बहुत तड़पा है पर घायल नहीं है
ये परछाई किसी हरजाई की है
मेरा साया तो ये बिल्कुल नहीं है
मेरी आँखों से गुमसुम रोशनी है
मेरी नज़रों से वो ओझल नहीं है
मुझे जो जान से है बढ़ के प्यारा
क्यों मेरे दर्द में शामिल नहीं है
मुहब्बत चाँद से वो क्या करेगी
चकोरी जैसी जो पागल नहीं है
यक-तरफ़ा फ़ैसले में था इंसाफ़ कहाँ का
मेरी वफ़ा की कुछ तो सज़ा दीजिए मुझे
यक-तरफ़ा फ़ैसले में था इंसाफ़ कहाँ का
मेरा क़ुसूर क्या था बता दीजिए मुझे
दो जिस्म एक जान है बीमार हैं दोनों
उसको शफ़ा मिलेगी दुआ दीजिए मुझे
मैं जा रहा हूँ आऊँगा शायद ही लौट कर
ऐसे न बार-बार सदा दीजिए मुझे
इस दौर में अब इब्ने-मरयम नहीं मिलते
बस कान में अंजील सुना दीजिए मुझे
रोते हुए बच्चे ने माँ-बाप से कहा
बस चाँद आसमान से ला दीजिए मुझे
सोया रहा हूँ चाँद मैं ग़फ़लत की नींद में
रुख़सत का आया वक्त जगा दीजिए मुझे
अपने तो हौसले निराले हैं
आस्तीनों में सांप पाले हैं
बन न पाये वोह हमखयाल कभी
हम निवाले हैं हम पियाले हैं
कुछ अजब सा है रखरखाव उनका
तन के उजले हैं मन के काले हैं
जिन घरों की छतों में जाले हैं
उनके दिन कब बदलने वाले हैं
हैं दुआयें मेरे बुजुर्गों की
मेरे चारों तरफ उजाले हैं
दर्दे दिल का बयाँ करूँ किस से
जबकि सब के लबों पे ताले हैं
साँप की मानिंद वोह डसती रही मेरे अरमानों में जो रहती रही
मेरे अरमानों में जो रहती रही
रोज़ जलते हैं ग़रीबों के मकान
फिर यह क्यों गुमनाम सी बस्ती रही
साँझ का सूरज था लथपथ खून में
मौत मेहंदी की तरह रचती रही
सूनी थीं गलियाँ ओ गुमसुम रास्ते
नाम की बस्ती थी और बस्ती रही
ना ख़ुदा थे हम ज़माने के लिये
अपनी तो मँझधार में कश्ती रही
गाँव की चौपाल जब बेवा हुई
शहर में शहनाई क्यों बजती रही
गाँव के हर घर का उजड़ा है सुहाग
मौत दुल्हन की तरह सजती रही
उनको अपने नाम की ही भूख है
मेरी रोटी ही मुझे तकती रही
साँप साँपों से गले मिलते रहे
आदमीअत आदमी डसती रही
हर इक घर का "चाँद" था झुलसा हुआ
मुँह जली सी चाँदनी तपती रही
गैरत मंद परिंदों यूँ ही हवा में उडते जाते हो
जब हो दाना दुनका चुगना तब धरती पे आते हो
मनमानी और तल्ख बयानी से क्यों सच झुठलाते हो
खुद की झूठी कसमें खा कर जीते जी मर जाते हो
तेरा मेरा तर्के-तअल्ल्लुक बेशक एक हकीकत है
तुम फिर भी जाने अनजाने ख़्वाबों में आ जाते हो
जानते हो तुम इश्क मोहबत तपता आग का सेहरा है
इसी लिए तुम पाँव बरेहना चलने से कतराते हो
चलो कदम दो आगे रखो मैं भी थोडा बढता हूँ
प्यार है तो इज़हार करो क्यों बे वजह शरमाते हो
हमने तो तन्हाई मैं तारों से बाते करनी है
चाँद हमारे राज़ की बाते सुन ने क्यों आ जाते हो
ये कैसी दिल्लगी है दिल्लगी अच्छी नहीं लगती
हमें तो आपकी यह बेरुख़ी अच्छी नहीं लगती
अँधेरों से हमें क्या हम उजालों के हैं मतवाले
जलाओ शम्अ हमको तीरगी अच्छी नहीं लगती
खुला है घर का दरवाज़ा चलो चुपके-से आ जाओ
न जाने क्यों तेरी नाराज़गी अच्छी नहीं लगती
हुए हो तुम जुदा जब से तुम्हारा नाम है लब पर
हमें तो अब खुदा की बंदगी अच्छी नहीं लगती
मैं जब उनके ख़यालों में यूँ अक्सर खो-सा जाता हूँ
फिर उनकी भी मुझे मौजूदगी अच्छी नहीं लगती
मैं अपने चाँद तारों से सजा लेता हूँ महफ़िल को
चिराग़ों की ये मद्धम रौशनी अच्छी नहीं लगती
वो जब भी मिलते हैं मैं हँस के ठहर जाता हूँ
उनकी आँखों के समंदर में उतर जाता हूँ
ख़ुद को चुनते हुए दिन सारा गुज़र जाता है
जब हवा शाम की चलती है बिखर जाता हूँ
अपने अश्कों से जला के तेरी यादों के चिराग
सुरमई शाम के दरपन में सँवर जाता हूँ
चाँदनी रात की वीरानियों में चलते हुए
जब अपने साये तो तकता हूँ तो डर जाता हूँ
चाँद तारे मेरे दामन में सिमट आते हैं
सियाह रात में जुगनू-सा चमक जाता हूँ
मेरे वजूद में बनके दिया वो जलता रहा
वो इक ख़याल था रोशन ज़ेहन में पलता रहा
बस गई काले गुलाबों की वो खुशबू रूह में
हसीन याद का संदल था और महकता रहा
वो धूप छाँव गरमी सरदी ना पुरवाई
बे एतबार-सा मौसम था और बदलता रहा
मैं जिनको डूबते छोड़ आया था मँझधारों में
उन्हीं की याद में मैं उम्रभर तड़पता रहा
वस्ल की रात थी सरग़ोशियों का आलम था
जो टूटा ख़्वाब तो मैं रात भर सुबकता रहा
हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे
चुटकियों-से ही अक्सर बहलते रहे
चार- सू थी हमारे बस आलूदगी
अपने आँगन में गुन्चे लहकते रहे
कितना खौफ़-आज़मा था ज़माने का डर
उनसे अक्सर ही छुप-छुप के मिलते रहे
ख़्वाहिशें थीं अधूरी न पूरी हुईं
चंद अरमाँ थे दिल में मचलते रहे
उनकी जुल्फें- परीशाँ जो देखा किये
कुछ भी कर न सके हाथ मलते रहे
चाँद जाने कहाँ कैसे खो-सा गया
चाँदनी को ही बस हम तरसते रहे