Saturday 29 December 2018

ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं

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ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं 
फ़ज़ा बहारीं है जिस के जल्वों से वो हरीफ़-ए-बहार हूँ मैं 

खटक रहा हूँ हर इक की नज़रों में बच के चलती है मुझ से दुनिया 
ज़हे गिराँ-बारी-ए-मोहब्बत कि दोश-हस्ती पे बार हूँ मैं 

कहाँ है तू वादा-ए-वफ़ा कर के ओ मिरे भूल जाने वाले 
मुझे बचा ले कि पाएमाल-ए-क़यामत-ए-इन्तिज़ार हूँ मैं 

तिरी मोहब्बत में मेरे चेहरे से है नुमायाँ जलाल तेरा 
हूँ तेरे जल्वों में महव ऐसा कि तेरा आईना-दार हूँ मैं 

वो हुस्न-ए-बे-इल्तिफ़ात ऐ 'ताजवर' हुआ इल्तिफ़ात-फ़रमा 
तो ज़िन्दगी अब सुना रही है कि उम्र-ए-बे-एतिबार हूँ मैं

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