Saturday 29 December 2018

निकहते-गुल बहुत इतराई हुई फिरती है।

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निकहते-गुल बहुत इतराई हुई फिरती है।
वोह कहीं खोल भी दें तुर्रये-गेसू अपना।

निकहते-ख़ुल्देबरीं फैल गईं कोसों तक।
वोह नहा कर जो सुखाने लगे गेसू अपना॥

लिल्लाह हम्द! कदूरत नहीं रहने पाती।
मुँह धुला देता है हर सुबह को आँसू अपना॥

गम में परवाना-ये-मरहूम के थमते नहीं अश्क।
शमअ़! ऐ शमअ़! ज़रा देख तो मुँह तू अपना॥

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