Saturday, 29 December 2018
कहा जो मैंने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था
कहा जो मैंने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था
तो हँस के बोले वो मुँह क़ाबिल-ए-नक़ाब न था।
शब-ए-विसाल भी वो शोख़ बे-हिजाब न था
नक़ाब उलट के भी देखा तो बे-नक़ाब न था।
लिपट के चूम लिया मुँह मिटा दिया उन का
नहीं का उन के सिवा इस के कुछ जवाब न था।
मिरे जनाज़े पे अब आते शर्म आती है
हलाल करने को बैठे थे जब हिजाब न था।
नसीब जाग उठे सो गए जो पाँव मिरे
तुम्हारे कूचे से बेहतर मक़ाम-ए-ख़्वाब न था।
ग़ज़ब किया कि इसे तू ने मोहतसिब तोड़ा
अरे ये दिल था मिरा शीशा-ए-शराब न था।
ज़माना वस्ल में लेता है करवटें क्या क्या
फ़िराक़-ए-यार के दिन एक इंक़लाब न था।
तुम्हीं ने क़त्ल किया है मुझे जो तनते हो
अकेले थे मलक-उल-मौत हम-रिकाब न था।
दुआ-ए-तौबा भी हम ने पढ़ी तो मय पी कर
मज़ा ही हम को किसी शय का बे-शराब न था।
मैं रू-ए-यार का मुश्ताक़ हो के आया था
तिरे जमाल का शैदा तो ऐ नक़ाब न था।
बयान की जो शब-ए-ग़म की बेकसी तो कहा
जिगर में दर्द न था दिल में इज़्तिराब न था।
वो बैठे बैठे जो दे बैठे क़त्ल-ए-आम का हुक्म
हँसी थी उन की किसी पर कोई इताब न था।
जो लाश भेजी थी क़ासिद की भेजते ख़त भी
रसीद वो तो मिरे ख़त की थी जवाब न था।
सुरूर-ए-क़त्ल से थी हाथ पाँव को जुम्बिश
वो मुझ पे वज्द का आलम था इज़्तिराब न था।
सबात बहर-ए-जहाँ में नहीं किसी को 'अमीर'
इधर नुमूद हुआ और उधर हुबाब न था।
तो हँस के बोले वो मुँह क़ाबिल-ए-नक़ाब न था।
शब-ए-विसाल भी वो शोख़ बे-हिजाब न था
नक़ाब उलट के भी देखा तो बे-नक़ाब न था।
लिपट के चूम लिया मुँह मिटा दिया उन का
नहीं का उन के सिवा इस के कुछ जवाब न था।
मिरे जनाज़े पे अब आते शर्म आती है
हलाल करने को बैठे थे जब हिजाब न था।
नसीब जाग उठे सो गए जो पाँव मिरे
तुम्हारे कूचे से बेहतर मक़ाम-ए-ख़्वाब न था।
ग़ज़ब किया कि इसे तू ने मोहतसिब तोड़ा
अरे ये दिल था मिरा शीशा-ए-शराब न था।
ज़माना वस्ल में लेता है करवटें क्या क्या
फ़िराक़-ए-यार के दिन एक इंक़लाब न था।
तुम्हीं ने क़त्ल किया है मुझे जो तनते हो
अकेले थे मलक-उल-मौत हम-रिकाब न था।
दुआ-ए-तौबा भी हम ने पढ़ी तो मय पी कर
मज़ा ही हम को किसी शय का बे-शराब न था।
मैं रू-ए-यार का मुश्ताक़ हो के आया था
तिरे जमाल का शैदा तो ऐ नक़ाब न था।
बयान की जो शब-ए-ग़म की बेकसी तो कहा
जिगर में दर्द न था दिल में इज़्तिराब न था।
वो बैठे बैठे जो दे बैठे क़त्ल-ए-आम का हुक्म
हँसी थी उन की किसी पर कोई इताब न था।
जो लाश भेजी थी क़ासिद की भेजते ख़त भी
रसीद वो तो मिरे ख़त की थी जवाब न था।
सुरूर-ए-क़त्ल से थी हाथ पाँव को जुम्बिश
वो मुझ पे वज्द का आलम था इज़्तिराब न था।
सबात बहर-ए-जहाँ में नहीं किसी को 'अमीर'
इधर नुमूद हुआ और उधर हुबाब न था।
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