Saturday 29 December 2018

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा

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फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा
कभी तकिया इधर रक्खा, कभी तकिया उधर रक्खा

बराबर आईने के भी न समझे क़द्र वो दिल की 
इसे ज़ेरे-क़दम रक्खा उसे पेशे-नज़र रक्खा

तुम्हारे संगे-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ ऐसा किया मर कर उसे छाती पे धर रक्खा

जिनाँ में साथ अपने क्यों न ले जाऊँ मैं नासेह ]को
सुलूक ऐसा ही मेरे साथ है हज़रत ने कर रक्खा 

बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उसकी लग़ज़िश-ए-पा का 
कि उसने बेतहाशा हाथ मेरे दोश पर रक्खा

तेरे हर नक़्श-ए-पा को रहगुज़र  में सजदा कर बैठे 
जहाँ तूने क़दम रक्खा वहाँ हमने भी सर रक्खा 

अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुरक़त में 
जो बरसा अब्र-ए-रहमत जा-ए-मय शीशे में भर रक्खा

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