चेहराए-यार से नक़ाब उठा दिल से इक शोरे-इज़्तराब उठा रात पीरे-मुगाँ की महफ़िल से जो उठा मस्त उठा ख़राब उठा हम थे बेबाक और वह महजूब शब, ग़रज़, लुत्फ़ बे-हिसाब उठा अपार मस्ते-सहबाए-शौक़ है ’हसरत’ हमनशीं सागरे-शराब उठा
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