Sunday 31 March 2019

हुई ताख़ीर तो कुछ बाइसे-ताख़ीर भी था hui taakhir to kuch baaise taakhir

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हुई ताख़ीर तो कुछ बाइसे-ताख़ीर भी था
आप आते थे, मगर कोई इनाँगीर भी था

तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था

तू मुझे भूल गया हो, तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़चीर भी था

क़ैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हाँ कुछ इक रंज-ए-गिरांबारी-ए-ज़ंजीर भी था

बिजली इक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, कि मैं लब-तश्ना-ए-तक़रीर भी था

यूसुफ़ उस को कहूँ, और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक़-ए-तअ़ज़ीर  भी था

देखकर ग़ैर को हो क्यों न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले, तालिब-ए-तासीर भी था

पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्ता-सरों में वो जवाँ-मीर भी था

हम थे मरने को खड़े, पास न आया न सही
आखिर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था

रेख़ते[14] के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था


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