Wednesday, 13 March 2019
जब चला वो मुझ को बिस्मिल jab chala vo mujhko ko bismil khoo
जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
क्या ही पछताता था मैं क़ातिल का दामाँ छोड़ कर
मैं वो मजनूँ हूँ जो निकलूँ कुंज-ए-ज़िन्दाँ छोड़ कर
सेब-ए-जन्नत तक न खाऊँ संग-ए-तिफ़्लाँ छोड़ कर
पीवे मेरा ही लहू मानी जो लब उस शोख़ के
खींचे तो शंगर्फ़ से ख़ून-ए-शहीदाँ छोड़ कर
मैं हूँ वो गुम-नाम जब दफ़्तर में नाम आया मेरा
रह गया बस मुंशी-ए-क़ुदरत जगह वाँ छोड़ कर
साया-ए-सर्व-ए-चमन तुझ बिन डराता है मुझे
साँप सा पानी में ऐ सर्व-ए-ख़िरामाँ छोड़ कर
हो गया तिफ़ली ही से दिल में तराज़ू तीर-ए-इश्क़
भागे हैं मकतब से हम औराक़-ए-मीज़ाँ छोड़ कर
अहल-ए-जौहर को वतन में रहने देता गर फ़लक
लाल क्यूँ इस रंग से आता बदख़्शाँ छोड़ कर
शौक़ है उस को भी तर्ज़-ए-नाला-ए-उश्शाक़ से
दम-ब-दम छेड़े है मुँह से दूद-ए-क़ुल्याँ छोड़ कर
दिल तो लगते ही लगे गा हूरयान-ए-अदन से
बाग़-ए-हस्ती से चला हूँ हाए परयाँ छोड़ कर
घर से भी वाक़िफ़ नहीं उस के के जिस के वास्ते
बैठे हैं घर-बार हम सब ख़ाना-वीराँ छोड़ कर
वस्ल में गर होवे मुझ को रूयत-ए-माह-ए-रजब
रू-ए-जानाँ ही को देखूँ मैं तो क़ुरआँ छोड़ कर
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलयाँ छोड़ कर
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