Sunday 17 March 2019

महरम नहीं है तू ही नवा-हाए-राज़ का marham nahi hai tu hi Navaa

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महरम नहीं है तू ही नवा-हाए-राज़ का
याँ वरना जो हिजाब है, पर्दा है साज़ का

रंगे-शिकस्ता सुबहे-बहारे-नज़ारा है
ये वक़्त है शुगुफ़तने-गुल-हाए-नाज़ का

तू, और सू-ए-ग़ैर  नज़र-हाए तेज़-तेज़
मैं, और दुख तेरी मिज़गां-हाए-दराज़ का

सरफ़ा है ज़ब्ते-आह में मेरा, वगरना मैं
तोअ़मा हूँ एक ही नफ़से-जां-गुदाज़ का

हैं बस कि जोशे-बादा से शीशे उछल रहे
हर गोशा-ए-बिसात है सर शीशा-बाज़ का

काविश का दिल करे है तक़ाज़ा कि है हनूज़
नाख़ुन पे क़रज़ इस गिरहे-नीम-बाज़ का

ताराज-ए-काविशे-ग़मे-हिजरां  हुआ 'असद'
सीना, कि था दफ़ीना-ए-गुहर-हाए-राज़ का


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