Sunday 17 March 2019

सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़े-रिज़वां का sataish gar hai zahid is kadar

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सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़े-रिज़वां का
वह इक गुलदस्ता है हम बेख़ुदों के ताक़े-निसियां का

बयां क्या कीजिये बेदादे-काविश-हाए-मिज़गां का
कि हर इक क़तरा-ए-ख़ूं दाना है तस्बीहे-मरजां का

न आई सतवते-क़ातिल भी मानअ़ मेरे नालों को
लिया दांतों में जो तिनका, हुआ रेशा नैस्तां का

दिखाऊंगा तमाशा, दी अगर फ़ुरसत ज़माने ने
मेरा हर दाग़-ए-दिल इक तुख्म है सर्व-ए-चिराग़ां का

किया आईनाख़ाने का वो नक़्शा तेरे जल्वे ने
करे जो परतव-ए-ख़ुरशीद-आलम शबनमिस्तां का

मेरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की
हयूला बरक़-ए-ख़िरमन का है ख़ून-ए-गरम दहक़ां का

उगा है घर में हर-सू सब्ज़ा, वीरानी, तमाशा कर
मदार अब खोदने पर घास के, है मेरे दरबां का

ख़मोशी में निहां ख़ूंगश्ता लाखों आरज़ूएं हैं
चिराग़-ए-मुरदा हूं मैं बेज़ुबां गोर-ए-ग़रीबां का

हनूज़ इक परतव-ए-नक़्श-ए-ख़याल-ए-यार बाक़ी है
दिल-ए-अफ़सुर्दा गोया हुजरा है यूसुफ़ के ज़िन्दां का

बग़ल में ग़ैर की आप आज सोते हैं कहीं, वरना
सबब क्या? ख़्वाब में आकर तबस्सुम-हाए-पिनहां का

नहीं मालूम किस-किसका लहू पानी हुआ होगा!
क़यामत है सरश्क-आलूदा होना तेरी मिज़गां का

नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना ग़ालिब
कि ये शीराज़ा है आ़लम के अज्जाए-परीशां का


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