Saturday 15 July 2017

एक हिन्दोस्ताँ होता था

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कहती थी के रावी नदी के पार
इक हिन्दोस्ताँ होता था
झेलम नदी के पार मेरा
अपना घर होता था

रहते थे सब मिल जुलकर
हिन्दू मुस्लिम का फर्क न मालूम होता था
ईद की खीर और दीवाली की जलेबी का
एक सा स्वाद पूरी गली मैं होता था
माँ जाती थी बाजार पड़ोस की अम्मी
और इनका एक सब रंग ढंग होता था
मेरी सहेली बानो और प्रीतो का
प्यारा संग होता था
मुल्तान से आया रेशमी कपडा , पिता जी की
दुकान मै हर दम होता था
सजते थे हॉट मेले और बाजार
जीवन का अपना ढंग निराला ढंग होता था
गुलामी की जंजीरे थी लेकिन मन की बस्ती
मै गजब उमंग होता था
हर दुःख मै दौड़ता आता पड़ोस
साथ देने मै कोई न तंग होता था
एक दिन इक आंधी आई
सबने कहा के आजादी आई
माँ ने सोचा के हलवा बना दू
जल्दी जल्दी चूल्हा जला दू
उतने मै कुछ चीखे उठने लगी
सड़को पे खून की नदिया दिखने लगी
हवेली के पिछले दरवाजे पे जोर जोर
ठक ठक होने लगी थी
मन डरता था के जाने कोण होगा
आदम होगा या साज़िश का ढोंग होगा
आवाज आई के मै हु रशीद भाई
डरते डरते चिटखनी हटाई
मैंने देखा के उनके साथ पिताजी बी आये
आकर जल्दी से मुझको और वीर को उठाया
माँ को जाने क्या रशीद चाचा ने बताया
कितने वादे लिए, और  घर की चाभी पकड़ा दी
माँ ने बोला के वापिसी तक घर का ध्यान रखना
जल्दी ही आएंगे बस कुछ दिन क लिए अमृतसर रुक जायेंगे
माँ बताती थी के नंगी तलवारे थी
रास्ते पे अंगारे थे
खाने के लिए कुछ चने लायी थी
नदी के पानी संग पेट भरा था
 
लहूलुहान हो रही थी धरती
जाने रब क्यों खामोश खड़ा था
एक हिन्दोस्ताँ से चलकर पहुचे दूसरे हिन्दोस्ताँ मे
तो मालूम हुआ के अब वो हिन्दोस्ताँ नहीं रहा
मालूम हुआ के अब उस धरती के लोग अपने नहीं रहे
उस हिन्दोस्ताँ को अब पाकिस्तान कहते है
ये धोखा था आजादी थी या इंसानियत हारी थी
कहते थे  जीत ली आजादी पर यु लगा के हारी थी
माँ फिर भी बनाती थी पूरी हलवा
फिर भी कहती थी के झेलम के पार घर है मेरा
पिता जी कभी न भूले वो पुरानी गलियो का घेरे
पीपल के नीचे की चोपाल
लाहोर का पुराना क़िला
ईद और दीवाली की रौनक
कोन थे हिन्दू कोन मुसलमान
सब थे अपने
पड़ोस मै रहते थे
सब अपने थे
आजादी के धोखे मे
छीन लिए बरसो पुराने
वो रिश्ते गालिया नाते हमसाये
आजादी की ये कहानी सुनाती थी
मरते दम तक याद उनको सताती थी
के एक हिन्दोस्ताँ है रावी नदी के पार


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