Saturday, 13 April 2019
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है shabnam ba gul ae laala
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है
दाग़-ए-दिल-ए-बेदरद नज़र-गाह-ए-हया है
दिल ख़ूं-शुदा-ए कशमकश-ए-हसरत-ए-दीदार
आईना ब दस्त-ए बुत-ए बद-मसत हिना है
शोले से न होती हवस-ए-शोला ने जो की
जी किस क़दर अफ़सुर्दगी-ए-दिल पे जला है
तिम्साल में तेरी है वह शोख़ी कि ब सद-ज़ौक़
आईना, ब अनदाज़-ए-गुल आग़ोश-कुशा है
क़ुमरी कफ़-ए-ख़ाकसतर-ओ-बुलबुल क़फ़स-ए-रंग
ऐ नाला, निशान-ए जिगर-ए सोख़ता क्या है?
ख़ू ने तेरी अफ़सुर्दा किया वहशत-ए दिल को
माशूक़ी-ओ-बे-हौसलगी तुरफ़ा बला है
मजबूरी-ओ-दावा-ए गिरफ़्तारी-ए-उल्फ़त
दसत-ए-तह-ए-संग-आमद पैमान-ए-वफ़ा है
मालूम हुआ हाल-ए-शहीदान-ए, गुज़िश्ता
तेग़-ए सितम आईना-ए-तस्वीर-नुमा है
ऐ परतव-ए-ख़ुरशीद-ए-जहां-ताब, इधर भी
साये की तरह हम पे अ़जब वक़्त पड़ा है
ना-करदा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
या रब! अगर इन करदा गुनाहों की सज़ा है
बेगानगी-ए ख़ल्क़ से बेदिल न हो 'ग़ालिब'
कोई नहीं तेरा तो मेरी जान ख़ुदा है
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे aaina kyu na du ki tamasha kahe jise
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ-सा कहें जिसे
हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे
फूँका है किसने गोश-ए-मुहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार तमन्ना कहें जिसे
सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे
है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहां
शौक़-ए-अ़ना-गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे
दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल हाये-ऐश को
सुबह-ए-बहार पम्बा-ए-मीना कहें जिसे
"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
जिस जा नसीम शाना-कश-ए ज़ुल्फ़-ए-यार है jis jaa naseem shaana
जिस जा नसीम शाना-कश-ए ज़ुल्फ़-ए-यार है
नाफ़ा दिमाग़-ए आहू-ए दश्त-ए ततार है
किस का सुराग़ जल्वा है हैरत को, ऐ ख़ुदा
आईना फ़रश-ए शश-जिहत-ए इन्तिज़ार है
है ज़र्रा-ज़र्रा तंगी-ए जा से ग़ुबार-ए शौक़
गर दाम यह है, वुस`अत-ए सहरा शिकार है
दिल मुद्द`ई-ओ-दीदा, बना मुद्द`आ अ़ली
नज़्ज़ारे का मुक़द्दमा फिर रूबकार है
छिड़के है शबनम आइना-ए-बरग-ए गुल पर आब
ऐ अ़ंदलीब वक़्त-ए विदाअ़-ए-बहार है
पच आ पड़ी है वादा-ए दिलदार की मुझे
वह आए या न आए पे यां इंतज़ार है
बे-परदा सू-ए-वादी-ए-मजनूं गुज़र न कर
हर ज़र्रे के नक़ाब में दिल बे-क़रार है
ऐ अ़ंदलीब, यक कफ़-ए ख़स बहर-ए आशियां
तूफ़ान-ए आमद-आमद-ए फ़सल-ए बहार है
दिल मत गंवा, ख़बर न सही सैर ही सही
ऐ बे-दिमाग़, आईना तिम्साल-दार है
ग़फ़लत[21] कफ़ील-ए उ़मर-ओ[22]-'असद' ज़ामिन-ए-निशात[23]
ऐ मर्ग-ए-नागहां[24], तुझे क्या इंतज़ार है
ख़मोशियों में तमाशा, अदा निकलती है khamoshiyo mei tamasha ada niklati
ख़मोशियों में तमाशा, अदा निकलती है
निगाह दिल से तेरे सुरमा-सा निकलती है
फ़शार-ए-तंगी-ए-ख़लवत से बनती है शबनम
सबा जो ग़ुंचे के परदे में जा निकलती है
न पूछ सीना-ए-आ़शिक़ से आब-ए-तेग़-ए-निगाह
कि ज़ख़्म-ए-रौज़न-ए-दर से, हवा निकलती है
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना hu mai bhi tamashai
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
मतलब नहीं कुछ इस से कि मतलब ही बर आवे
सियाही जैसे गिर जावे दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
मेरी क़िस्मत में यूँ तस्वीर है शब-हाए-हिज़रां की
हजारो ख्वाइशें ऐसी की hajaro khwaishe aisi
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो ख़ूँ, जो चश्मे-तर से उम्र यूँ दम-ब-दम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वह ज़माना जो जहां में जाम-ए-जम निकले
हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम निकले
अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
ज़रा कर ज़ोर सीने में कि तीरे-पुर-सितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
मुहब्बत में नही है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले
ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो यां भी वही क़ाफ़िर सनम निकले
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले
रौंदी हुई है कौकबए-शहरयार की rondi hui hai kokbaye
रौंदी हुई है कौकबए-शहरयार की
इतराए क्यों न ख़ाक, सर-ए-रहगुज़ार की
जब, उस के देखने के लिये, आएं बादशाह
लोगों में क्यों नुमूद न हो, लालाज़ार की
भूखे नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्तां के हम, वले
क्योंकर न खाइये, कि हवा है बहार की
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी, ये डराता है मुझे baagh paakar khafkaani galib
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी, ये डराता है मुझे
साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई नज़र आता है मुझे
जौहर-ए-तेग़ ब-सर-चश्मा-ए-दीगर मालूम
हूं मैं वह सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे
मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकसत-ए-दिल है
आईनाख़ाने में कोई लिये जाता है मुझे
नाला सरमाया-ए-यक-आ़लम-ओ-आ़लम कफ़-ए-ख़ाक
आसमां बेज़ा-ए-क़ुमरी नज़र आता है मुझे
ज़िन्दगी में तो वह महफ़िल से उठा देते थे
देखूं, अब मर गए पर, कौन उठाता है मुझे
बहुत सही ग़मे-गेती, शराब कम क्या है? Bahut sahi gam ae moti
बहुत सही ग़मे-गेती, शराब कम क्या है?
ग़ुलामे-साक़ी-ए-कौसर हूँ, मुझको ग़म क्या है?
तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश, जानते हैं हम क्या है
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़, तो सितम क्या है?
कटे तो शब कहें, काटे तो सांप कहलावे
कोई बताओ, कि वो ज़ुल्फ़े-ख़म-ब-ख़म क्या है?
न हश्रो-नश्र का क़ायल न केशो-मिल्लत का
ख़ुदा के वास्ते, ऐसे की फिर क़सम क्या है?
सुख़न में ख़ामए ग़ालिब की आतश-अफ़शानी
यक़ीं है हमको भी, लेकिन अब उसमें दम क्या है?
इब्ने-मरियम हुआ करे कोई ibn ae mariyam hua kare
इब्ने-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
शरअ-ओ-आईन पर मदार सही
ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई
चाल, जैसे कड़ी कमाँ का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई
बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
रोक लो, गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई
कौन है जो नहीं है हाजतमंद
किसकी हाजत रवा करे कोई
क्या किया ख़िज्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई
जब तवक़्क़ो ही उठ गयी "ग़ालिब"
क्यों किसी का गिला करे कोई
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए rone se aur ishq mei
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी
थे ये ही दो हिसाब, सो यों पाक हो गए
रुसवा-ए-दहर गो हुए आवारगी से तुम
बारे तबीअ़तों के तो चालाक हो गए
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए
पूछे है क्या वुजूद-ओ-अ़दम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग से ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए
करने गये थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह, कि बस ख़ाक हो गए
इस रंग से उठाई कल उस ने "असद" की न'श[13]
दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए
कहूं जो हाल तो कहते हो, 'मुद्दआ कहिये' kahu jo haal to galib
कहूं जो हाल तो कहते हो, 'मुद्दआ कहिये'
तुम्हीं कहो कि जो तुम यूं कहो तो क्या कहिये
न कहियो तान से फिर तुम, कि हम सितमगर हैं
मुझे तो ख़ू है कि जो कुछ कहो, बजा कहिये
वह नश्तर सही, पर दिल में जब उतर जावे
निगाह-ए-नाज़ को फिर क्यूं न आशना कहिये
नहीं ज़रीहाए-राहत जराहत-ए-पैकां
वह ज़ख़्म-ए-तेग़ है जिस को कि दिल-कुशा कहिये
जो मुद्दई बने, उस के न मुद्दई बनिये
जो ना-सज़ा कहे उस को न ना-सज़ा कहिये
कहीं हक़ीक़त-ए-जां-काही-ए-मरज़ लिखिये
कहीं मुसीबत-ए-ना-साज़ी-ए-दवा कहिये
कभी शिकायत-ए रंज-ए गिरां-निशीं कीजे
कभी हिकायत-ए सब्र-ए गुरेज़-प कहिये
रहे न जान, तो क़ातिल को ख़ूं-बहा दीजे
कटे ज़बान तो ख़ंजर को मरहबा कहिये
नहीं निगार को उल्फ़त न हो निगार तो है
रवानी-ए-रविश-ओ-मस्ती-ए-अदा कहिये
नहीं बहार को फ़ुरसत, न हो बहार तो है
तरावत-ए-चमन-ओ-ख़ूबी-ए-हवा कहिये
सफ़ीना जब कि किनारे पे आ लगा 'ग़ालिब'
ख़ुदा से क्या सितम-ओ-जोर-ए-ना-ख़ुदा कहिये
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे bajicha ae atfaal hai galib
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे
इक खेल है औरंग-ए-सुलेमां मेरे नज़दीक
इक बात है ऐजाज़-ए-मसीहा, मेरे आगे
जुज़ नाम, नहीं सूरत-ए-आ़लम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम, नहीं हस्ती-ए-अशया, मेरे आगे
होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया, मेरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे
सच कहते हो, ख़ुदबीन-ओ-ख़ुदआरा हूँ, न क्यों हूँ
बैठा है बुत-ए-आईना सीमा, मेरे आगे
फिर देखिये अन्दाज़-ए-गुलअफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा, मेरे आगे
नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा
क्योंकर कहूँ, लो नाम न उनका मेरे आगे
ईमाँ मुझे रोके है, जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे
आशिक़ हूँ, पे माशूक़-फ़रेबी है मेरा काम
मजनूं को बुरा कहती है लैला, मेरे आगे
ख़ुश होते हैं, पर वस्ल में, यूँ मर नहीं जाते
आई शबे-हिजराँ की तमन्ना, मेरे आगे
है मौज-ज़न इक क़ुल्ज़ुमे-ख़ूँ काश! यही हो
आता है अभी देखिये क्या-क्या, मेरे आगे
गो हाथ को जुम्बिश नहीं, आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना, मेरे आगे
हमपेशा-ओ-हमशरब-ओ-हमराज़ है मेरा
'ग़ालिब' को बुरा क्यों, कहो अच्छा, मेरे आगे
लाग़र इतना हूं कि, गर तू बज़्म में जा दे मुझे laagar itna hu ki galib
लाग़र इतना हूं कि, गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मेरा ज़िम्मा, देख कर गर कोई बतला दे मुझे
क्या तअ़ज्जुब है कि उस को, देख कर आ जाए रहम
वां तलक कोई किसी हीले से पहुंचा दे मुझे
मुंह न दिखलावे न दिखला, पर ब अंदाज़-ए`इताब
खोल कर परदा ज़रा, आँखें ही दिखला दे मुझे
यां तलक मेरी गिरफ़्तारी से वह ख़ुश है, कि मैं
ज़ुल्फ़ गर बन जाऊं, तो शाने में उलझा दे मुझे
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से kabhi neki uske jee mei galib
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से
ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है
कि जितना खैंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से
वो बद-ख़ू, और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझ से
उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवानी है
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझ से
सँभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी, क्या क़यामत है
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से
तकल्लुफ़ बर-तरफ़, नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से
हुए हैं पाँव ही पहले नवर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझ से
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र "ग़ालिब"
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से
दिया है दिल अगर उसको, diya hai dil usko galib
दिया है दिल अगर उसको, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है, क्या कहिये
ये ज़िद, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है क्या कहिये
रहे है यों गहो-बेगह कि कूए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है, क्या कहिये
ज़हे-करिश्मा, कि यों दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उन्हें सब ख़बर है, क्या कहिये
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है, क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या, कहिये
उन्हें सवाल पे ज़ोअ़मे-जुनूं है, क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ़ए-नज़र है, क्या कहिये
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है, क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मताअ़-ए-हुनर है, क्या कहिये
कहा है किसने कि "ग़ालिब" बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्ता-सर है क्या कहिये
क्यूं न हो चश्म-ए-बुतां महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूं न हो kyu na ho galib
क्यूं न हो चश्म-ए-बुतां महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूं न हो
यानी उस बीमार को नज़्ज़ारे से परहेज़ है
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
वाए ना-कामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है
आ़रिज़-ए-गुल देख रू-ए-यार याद आया 'असद'
जोशिश-ए-फ़सल-ए बहारी इश्तियाक़-अंगेज़ है
करे है बादा, तेरे लब से, कसब-ए-रंग-ए-फ़ुरोग kare hai vaada galib
करे है बादा, तेरे लब से, कसब-ए-रंग-ए-फ़ुरोग़
ख़त-ए-प्याला सरासर निगाह-ए-गुल-चीं है
कभी तो इस दिल-ए-शोरीदा की भी दाद मिले
कि एक उ़मर से हसरत-परसत-ए-बाली है
बजा है गर न सुने नाला-ए-बुलबुल-ए-ज़ार
कि गोश-ए-गुल नम-ए-शबनम से पम्बा-आगीं है
'असद' है नज़अ़ में चल बे-वफ़ा बरा-ए-ख़ुदा
मक़ाम-ए-तरक-ए-हिज़ाब-ओ-विदा-ए-तमकीं है
हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते hum.rashk bhi gawara nahi karte
हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते
मरते हैं, वले उन की तमन्ना नहीं करते
दर पर्दा, उन्हें ग़ैर से है रब्त-ए-निहानी
ज़ाहिर का ये पर्दा है कि पर्दा नहीं करते
यह बाइस-ए-नौमीदी-ए-अरबाब-ए-हवस है
"ग़ालिब" को बुरा कहते हो अच्छा नहीं करते
Thursday, 11 April 2019
Saturday, 6 April 2019
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहते-दिल का na pooch nuksha ae marham
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहते-दिल का
कि उस में रेज़ा-ए-अल्मास जुज़्व-ए-आ़ज़म है
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
वह इक निगह कि ब ज़ाहिर निगाह से कम है
ख़तर है, रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गरदन न हो जावे khatar hai rishta ae ulfat rang ae gardan
ख़तर है, रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गरदन न हो जावे
ग़ुरूर-ए-दोस्ती आफ़त है, तू दुश्मन न हो जावे
समझ इस फ़सल में कोताही-ए-नश्व-ओ-नुमा ग़ालिब
अगर गुल सर्व के क़ामत पे पैराहन न हो जावे
फ़रियाद की कोई लै नहीं है fariyaad ki koi lee nahi
फ़रियाद की कोई लै नहीं है
नाला पाबनद-ए-नै नहीं है
क्यूं बोते हैं बाग़-बान तूंबे
गर बाग़ गदा-ए-मै नहीं है
हर-चन्द हर एक शै में तू है
पर तुझ-सी कोई शै नहीं है
हाँ, खाइयो मत फ़रेब-ए-हस्ती
हर-चन्द कहें कि 'है', नहीं है
शादी से गुज़र, कि ग़म न रहवे
उरदी जो न हो, तो दै नहीं है
क्यूं रद्द-ए-क़दह करे है, ज़ाहिद
मै है ये, मगस की क़ै नहीं है
हस्ती है न कुछ अ़दम है 'ग़ालिब'
आख़िर तू क्या है, ऐ, 'नहीं' है
वो आके ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे vo aake task8n ae ijtiraab to de
वो आके ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे
करे है क़त्ल, लगावट में तेरा रो देना
तेरी तरह कोई तेग़े-निगह की आब तो दे
दिखा के जुंबिश-ए-लब ही तमाम कर हमको
न दे जो बोसा, तो मुँह से कहीं जवाब तो दे
पिला दे ओक से साक़ी, जो हमसे नफ़रत है
प्याला गर नहीं देता न दे, शराब तो दे
"असद" ख़ुशी से मेरे हाथ-पाँव फूल गए
कहा जो उसने, ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे
चाक की ख़्वाहिश, अगर वहशत ब-उरियानी करे chaak ki khwaish agar
चाक की ख़्वाहिश, अगर वहशत ब-उरियानी करे
सुबह के मानिन्द ज़ख़्म-ए-दिल गिरेबानी करे
जल्वे का तेरे वह आ़लम है कि गर कीजे ख़याल
दीदा-ए दिल को ज़ियारत-गाह-ए हैरानी करे
है शिकस्तन से भी दिल नौमीद या रब कब तलक
आब-गीना कोह पर अ़रज़-ए गिरां-जानी करे
मै-कदा गर चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ से पावे शिकसत
मू-ए-शीशा दीदा-ए-साग़र की मिज़ग़ानी करे
ख़त्त-ए-आ़रिज़ से लिखा है, ज़ुल्फ़ को उल्फ़त ने अ़हद
यक-क़लम मंज़ूर है, जो कुछ परेशानी करे
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायां मुझ से har kadam duri ae manzil hai numaya
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायां मुझ से
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबां मुझ से
दरस-ए-उनवान-ए-तमाशा ब तग़ाफ़ुल ख़ुशतर
है निगह रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़गां मुझ से
वहशत-ए-आतिश-ए-दिल से शब-ए-तनहाई में
सूरत-ए-दूद रहा साया गुरेज़ां मुझ से
ग़म-ए-उश्शाक़, न हो सादगी-आमोज़-ए-बुतां
किस क़दर ख़ाना-ए-आईना है वीरां मुझ से
असर-ए-आबला से जाद-ए-सहरा-ए-जुनूं
सूरत-ए-रिश्ता-ए-गौहर है चिराग़ां मुझ से
बे-ख़ुदी बिस्तर-ए-तम्हीद-ए-फ़राग़त हो जो
पुर है साए की तरह मेरा शबिस्तां मुझ से
शौक़-ए-दीदार में गर तू मुझे गरदन मारे
हो निगह मिस्ल-ए-गुल-ए-शमअ़ परेशां मुझ से
बेकसी हाए-शब-ए-हिज़र की वहशत, है -है
साया ख़ुरशीद-ए-क़यामत में है पिनहां मुझ से
गर्दिश-ए-साग़र-ए-सद जल्वा-ए-रंगीं तुझ से
आईना-दारी-ए-यक-दीदा-ए-हैरां मुझ से
निगह-ए-गरम से इक आग टपकती है 'असद'
है चिराग़ां ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-गुलिस्तां मुझ से
बस्तन-ए-अ़हद-ए-मुहब्बत हमा ना-दानी था
चश्म-ए-नकशूदा रहा उक़दा-ए-पैमां मुझ से
आतिश-अफ़रोज़ी-ए-यक शोला-ए-ईमा तुझ से
चश्मक-आराई-ए सद-शहर चिराग़ां मुझ से
नुक्ताचीं है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने nuktachi hai gam ae dil
नुक्ताचीं है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने
मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने
खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे भूल न जाये
काश! यूँ भी हो कि बिन मेरे सताये न बने
ग़ैर फिरता है, लिए यों तेरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाये न बने
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किसकी है
पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने
मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने
बोझ वो सर पे गिरा है कि उठाये न उठे
काम वो आन पड़ा है कि बनाये न बने
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने
चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये chahoye accho ko jitna chahiye
चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये
ये अगर चाहें, तो फिर क्या चाहिये
सोहबत-ए-रिन्दां से वाजिब है हज़र
जा-ए-मै अपने को खेंचा चाहिये
चाहने को तेरे क्या समझा था दिल
बारे, अब इस से भी समझा चाहिये
चाक मत कर जैब बे-अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिये
दोस्ती का पर्दा है बेगानगी
मुंह छुपाना हम से छोड़ा चाहिये
दुश्मनी में मेरी खोया ग़ैर को
किस क़दर दुश्मन है, देखा चाहिये
अपनी, रुस्वाई में क्या चलती है सअई
यार ही हंगामाआरा चाहिये
मुन्हसिर मरने पे हो जिस की उमीद
नाउमीदी उस की देखा चाहिये
ग़ाफ़िल, इन महतलअ़तों के वास्ते
चाहने वाला भी अच्छा चाहिये
चाहते हैं ख़ूब-रुओं को, "असद"
आप की सूरत तो देखा चाहिये
हैं वस्ल-ओ-हिज़्र आ़लम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में hai vasl oo hijr aalam
हैं वस्ल-ओ-हिज़्र आ़लम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में
माशूक़-ए शोख़-ओ-आशिक़-ए-दीवाना चाहिये
उस लब से मिल ही जाएगा बोसह कभी तो हां
शौक़-ए फ़ुज़ूल-ओ-जुरअत-ए रिनदाना चाहिये
आशिक़ नक़ाब-ए-जलव-ए-जानाना चाहिये
फ़ानूस-ए शम'अ को पर-ए-परवाना चाहिये
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की jis jakhm ki ho sakti ho
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो, या रब उसे ! क़िस्मत में अ़दू की
अच्छा है सर-अनगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर
दिल में नज़र आती तो है, इक बूंद लहू की
क्यों डरते हो उ़शशाक़ की बे-हौसलगी से
यां तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू की
दश्ने ने कभी मुंह न लगाया हो जिगर को
ख़ंज़र ने कभी बात न पूछी हो गुलू की
सद हैफ़ ! वह ना-काम, कि इक उ़मर से ग़ालिब
हसरत में रहे एक बुत-ए-अ़रबदा-जू की
गो ज़िंदगी-ए-ज़ाहिद-ए-बे-चारा अ़बस है
इतना है कि रहती तो है तदबीर वुज़ू की
गुलशन को तेरी सोहबत अज़ बसकि ख़ुश आई है gulshan ko teri sohbat aaj baski
गुलशन को तेरी सोहबत अज़ बसकि ख़ुश आई है
हर ग़ुंचे का गुल होना आग़ोश-कुशाई है
वां कुनगुर-ए-इसतिग़ना हर दम है बुलंदी पर
यां नाले को और उलटा दावा-ए-रसाई है
अज़ बसकि सिखाता है ग़म, ज़ब्त के अन्दाज़े
जो दाग़ नज़र आया इक चश्म-नुमाई है
Friday, 5 April 2019
कब वो सुनता है कहानी मेरी kab vo sunta hai kahani meri
कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
ख़लिशे-ग़म्ज़-ए-खूँरेज़ न पूछ
देख ख़ूनाबा-फ़िशानी मेरी
क्या बयाँ करके मेरा रोएँगे यार
मगर आशुफ़्ता-बयानी मेरी
हूँ ज़िख़ुद-रफ़्ताए-बैदा-ए-ख़याल
भूल जाना है निशानी मेरी
मुत्तक़ाबिल है मुक़ाबिल मेरा
रुक गया देख रवानी मेरी
क़द्रे-संगे-सरे-रह रखता हूँ
सख़्त-अर्ज़ाँ है गिरानी मेरी
गर्द-बाद-ए-रहे-बेताबी हूँ
सरसरे-शौक़ है बानी मेरी
दहन उसका जो न मालूम हुआ
खुल गयी हेच-मदानी मेरी
कर दिया ज़ओफ़ ने आज़िज़ "ग़ालिब"
नंग-ए-पीरी है जवानी मेरी
तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ, मेरा दिमाग़-ए-अ़जज़ आ़ली है tagaaful dost hu mera dimaag
तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ, मेरा दिमाग़-ए-अ़जज़ आ़ली है
अगर पहलू-तही कीजे, तो जा मेरी भी ख़ाली है
रहा आबाद आ़लम, अहल-ए हिम्मतके न होने से
भरे हैं जिस क़दर जाम-ओ-सुबू मैख़ाना ख़ाली है
अगर पहलू-तही कीजे, तो जा मेरी भी ख़ाली है
रहा आबाद आ़लम, अहल-ए हिम्मत के न होने से
भरे हैं जिस क़दर जाम-ओ-सुबू मैख़ाना ख़ाली है
फिर इस अंदाज़ से बहार आई fir is andaaj se bahaar aai
फिर इस अंदाज़ से बहार आई
कि हुए मेहरो-मह तमाशाई
देखो, ऐ साकिनान-ए-ख़ित्त-ए-ख़ाक
इसको कहते हैं आलम-आराई
कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर
रूकशे-सतहे-चर्चे-मीनाई
सब्ज़ा को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई
सब्ज़ा-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्मे-नर्गिस को दी है बीनाई
है हवा में शराब की तासीर
बादा-नोशी है बाद-पैमाई
क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"
शाह-ए-दींदार[14] ने शिफ़ा[15] पाई
ग़ैर लें महफ़िल में, बोसे जाम के gairle mahfil mei bose jaam
ग़ैर लें महफ़िल में, बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के
ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा, कि ये
हथकंडे हैं चर्ख़े-नीली फ़ाम के
ख़त लिखेंगे, गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
रात पी ज़मज़म पे मय और सुबह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-अहराम के
दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के
शाह की है ग़ुस्ले-सेहत की ख़बर
देखिये, कब दिन फिरें हम्माम के
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें main unhe chedu aur kuch na kahe
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते, जो मय पिये होते
क़हर हो, या बला हो, जो कुछ हो
काश कि तुम मेरे लिये होते
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी, या रब, कई दिये होते
आ ही जाता वो राह पर, "ग़ालिब"
कोई दिन और भी जिये होते
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है' har ek baat pe kahte ho tum
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
न शो'ले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
हुआ है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है