Thursday, 4 April 2019
नहीं है ज़ख़म कोई बख़िया के दरख़ुर मिरे तन में, nahi hai jakhm koi bakhiya ke darkhure mire
नहीं है ज़ख़म कोई बख़िया के दरख़ुर मिरे तन में
हुआ है तार-ए अशक-ए यास रिशतह चशम-ए-सोज़न में
हुई है मान-ए ज़ौक़-ए-तमाशा ख़ानह-वीरानी
कफ़-ए सैलाब बाक़ी है ब रनग-ए पुनबह रौज़न में
वदीअत-ख़ानह-ए बेदाद-ए काविशहा-ए मिज़हगां हूँ
नगीन-ए नाम-ए शाहिद है मिरे हर क़तरह ख़ूं तन में
बयां किस से हो ज़ुलमत-गुसतरी मेरे शबिसतां की
शब-ए-मह हो जो रख दूं पुनबह दीवारों के रौज़न में
निकोहिश मान-ए-बेरबती-ए-शोर-ए जुनूं आई
हुआ है ख़नदह-ए अहबाब बख़यह जेब-ओ-दामन में
हुए उस मिहर-वश के जलवह-ए तिमसाल के आगे
पर-अफ़शां जौहर आईने में मिसल-ए ज़ररह रौज़न में
न जानूं नेक हूँ या बद हूँ पर सुहबत मुख़ालिफ़ है
जो गुल हूँ तो हूँ गुलख़न में जो ख़स हूँ तो हूँ गुलशन में
हज़ारों दिल दिये जोश-ए जुनून-ए इश्क़ ने मुझ को
सियह हो कर सुवैदा हो गया हर क़तरह ख़ूं तन में
असद ज़िनदानी-ए तासीर-ए उलफ़तहा-ए ख़ूबां हूँ
ख़म-ए दसत-ए नवाज़िश हो गया है तौक़ गरदन में
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