रौंदी हुई है कौकबए-शहरयार की इतराए क्यों न ख़ाक, सर-ए-रहगुज़ार की जब, उस के देखने के लिये, आएं बादशाह लोगों में क्यों नुमूद न हो, लालाज़ार की भूखे नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्तां के हम, वले क्योंकर न खाइये, कि हवा है बहार की
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