Thursday 4 April 2019

कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं kuch lala oh gul mei numaya

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सब कहाँ? कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हां हो गईं

याद थी हमको भी रंगा-रंग बज़्मआराइयां
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियां हो गईं

थीं बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ  दिन को पर्दे में निहां
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियां हो गईं

क़ैद से याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं

सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
हैं ज़ुलेख़ा ख़ुश कि सहबे-माह-ए-कनआं हो गईं

जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा के दो शम्अ़एं फ़रोज़ा हो गईं

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परीशां हो गईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्तां खुल गया
बुलबुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वां  हो गईं

वो निगाहें क्यों हुई जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़गां हो गईं

बस कि रोका मैंने और सीने में उभरीं पै-ब-पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबां हो गईं

वां गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब?
याद थीं जितनी दुआयें, सर्फ़-ए-दरबां हो गईं

जां-फ़िज़ां है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जां हो गईं

हम मुवहि्हद हैं, हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम
मिल्लतें जब मिट गईं, अज़्ज़ा-ए-ईमां हो गईं

रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं

यूँ ही गर रोता रहा "ग़ालिब", तो ऐ अह्ल-ए-जहां!
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीरां हो गईं


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