Friday 5 April 2019

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही na hui mere marne se tasalli

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न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहां और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही

ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही

मय-परस्तां ख़ुम-ए-म मुँह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही

नफ़स-ए-क़ैस कि है चश्म-ओ-चिराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम्मा-ए-सियहख़ाना-ए-लैली, न सही

एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक
नौह-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही

न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अश'आर में माअ़नी न सही

इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबां ही ग़नीमत समझो
न हुई, "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबोई न सही


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