Wednesday, 3 April 2019

आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नही aabru kya khaak us gul ki

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आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गिरेबां नंगे-पैराहन जो दामन में नहीं

ज़ोफ़ से ऐ गिरियां, कुछ बाक़ी मेरे तन में नहीं
रंग हो कर उड़ गया, जो ख़ूं कि दामन में नहीं

हो गए हैं जमअ़ अज्ज़ा-ए-निगाहे-आफ़ताब
ज़र्रे उसके घर की दीवारों के रौज़न में नहीं

क्या कहूँ तारीक़ी-ए-ज़िन्दाने-ए-ग़म अन्धेर है
पम्बा नूरे-सुबह से कम जिसके रौज़न में नहीं

रौनक़े-हस्ती है इश्क़े-ख़ाना-वीरां-साज़ से
अंजुमन बे-शम्अ़ है, गर बर्क़ ख़िरमन में नहीं

ज़ख्म सिलवाने से मुझ पर चाराजोई का है ताअ़न
ग़ैर समझा है कि लज़्ज़त ज़ख़्मे-सोज़न में नहीं

बस कि हैं हम इक बहारे-नाज़ के मारे हुए
जल्वा-ए-गुल के सिवा गर्द अपने मदफ़न में नहीं

क़तरा-क़तरा इक हयूला है, नए नासूर का
ख़ूँ भी ज़ौक़े-दर्द से फ़ारिग़ मेरे तन में नहीं

ले गई साक़ी की नख़्वत कुल्ज़ुम-आशामी मेरी
मौजे-मय की आज रग मीना की गर्दन में नहीं

हो फ़िशारे-ज़ोफ़ में क्या नातवानी की नुमूद
क़द के झुकने की भी गुंजाइश मेरे तन में नहीं

थी वतन में शान क्या ग़ालिब, कि हो ग़ुरबत में क़द्र
बे-तक़ल्लुफ़ हूँ वो मुश्ते-ख़स कि गुलख़न में नहीं


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