Wednesday 3 April 2019

मिलती है ख़ूए-यार से नार इल्तिहाब में milti hai khoo yaar se naar

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मिलती है ख़ूए-यार से नार इल्तिहाब में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अ़ज़ाब में

कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में
शब-हाए-हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अ़हद कर गये आये जो ख़्वाब में

क़ासिद के आते-आते ख़त इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ, जो वो लिखेंगे जवाब में

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

जो मुन्किर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यों बदगुमां हूँ दोस्त से, दुश्मन के बाब में

मैं मुज़्तरिब हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब से
डाला है तुमको वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में

मै और हज़्ज़-ए-वस्ल ख़ुदा-साज़ बात है
जां नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में

है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में

लाखों लगाव, एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, एक बिगड़ना इताब में

वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में

वो सेह़र मुद्दआ़-तलबी में न काम आये
जिस सेहर से सफ़ीना रवां हो सराब में

'ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्रो-शब-ए-माहताब में


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